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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३१७ ३. मुमुक्षु-मैंने कहीं पढ़ा है कि शास्त्र पढ़ने पर समझमें न आये तो भी जो शब्द कानमें पड़ते हैं उनके संस्कार अगले भवमें भी जाग्रत होकर वह समझमें आता है और मोक्षका कारण बनता है। प्रभुश्री यह बात सत्य है। शामको [पत्रांक १९४ के स्वाध्यायके प्रसंग पर] "हे आयुष्मानों! इस जीवने सब कुछ किया है, एक इसके बिना, वह क्या? तो कि निश्चयपूर्वक कहते हैं कि सत्पुरुषका कहा हुआ वचन, उसका उपदेश सुना नहीं है, अथवा सम्यक् प्रकारसे उसका पालन नहीं किया है। और इसे ही हमने मुनियोंकी सामायिक (आत्मस्वरूपकी प्राप्ति) कहा है।" हम कृपालुदेवसे मिले, तब अन्य साधु ऐसा कहते कि हम बिगड़ गये हैं। एक साधु जो हम पर प्रेम रखता था उसने मेरे पास आकर कहा, “आप जो करते हैं वह मैंने सुना है, वह कुछ भी हो, पर महावीर कथित सूत्रों पर श्रद्धा रखियेगा। इतना मेरा कहा मानियेगा।" सूत्राभिनिवेश भी मिथ्यात्व है। अन्यथा हमें वीतरागके वचनोंका कहाँ अनादर है? परंतु अपनी समझसे समकित मानना योग्य नहीं। आज तो घर-घरका समकित हो गया है, पर समकितकी महिमा तो कुछ और ही है! कृपालुदेवसे मिलनेके पहले हम सूत्र पढ़ते, उस पर फिर चर्चा करते और जिसे अधिक याद रहे तथा जो अधिक वर्णन करे वह बड़ा माना जाता। यह भी मिथ्यात्व है। भगवानने ‘सद्धा परम दुल्लहा' कहा है। सच्ची श्रद्धा-समकितका माहात्म्य, 'गोमट्टसार' और 'मूलाचार'का वाचन हो रहा है उसमें वर्णित है। 'समकित ही पुण्य है और समकिती जो-जो क्रिया करता है वह पुण्यरूपसे ही परिणत होती है।' यह पढ़ते हुए निश्चय होता है कि कृपालुदेवसे सुने वचनोंकी शास्त्र भी साक्षी देते हैं, और समकितका पोषण करते हैं। भरतराजा और श्रेणिकराजाके दृष्टांतसे, समकितकी उपस्थितिमें जो संक्लेश परिणाम थे वे पुण्यरूपसे फलित हुए। समकितीकी क्रियाका परिणाम या तो निर्जरारूप होता है या तो पुण्यबंधरूप होता है; पर समकिती पाप तो कर ही नहीं सकता। मिथ्यात्व ही पाप है। मिथ्यात्वीके परिणाम शुभ दिखाई देते हों, पर उसका फल मोक्षमार्गमें सहायक पुण्यरूप न होनेसे संसार-परिभ्रमण करानेवाला है, अतः उसके शुभ परिणाम भी पापरूप हैं। कोई कहीं और कोई कहीं अटके हैं, पर कहीं भी अटकने जैसा नहीं है । स्त्री, बच्चे, धन, संपत्ति, इसमें या उसमें कहीं भी अटके बिना आत्माको ही उपादेय, ध्येय मानना चाहिये । इसकी श्रद्धा हो गयी तो काम बन गया। चाहे जैसे कर्म दिखायी दें पर इसे तो चूकना ही नहीं चाहिये। जो बँधे हुए हैं वे तो आयेंगे ही-मेहमान भोजन करके चला जायेगा, पर संयोगोंको तो संयोग ही मानें। ध्यान करने बैठे तो संकल्प तो आयेंगे, पर उन्हें भिन्न जाने, तन्मय न होवें । सबको विष समझकर चलना है, अन्यथा भव खड़े करानेवाली सामग्रियाँ आ-आकर गिरती हैं। उन्हें आत्माका धर्म न समझें । यदि उसका संयोग अनिवार्य हो तो उसे भोग लेवें । जो आया है, उसे भोगना ही है, पर उसे इष्ट न मानें तो बंध नहीं होगा। यों भेद पड़े तो बहिरात्मासे अंतरात्मा हो जाय और यों करते करते 'दीनबंधुनी महेरनजरथी, आनंदघन पद पावे।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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