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________________ ३१६ उपदेशामृत इस प्रस्तावनामें परीक्षकवृत्ति है। कोई परीक्षा लेकर बच्चोंको पारितोषिक दे या अंक प्रदान करे उसी प्रकार सत्पुरुषकी परीक्षा करनेका प्रयत्न है। पर जिसकी परीक्षा लेनी हो उससे परीक्षक अधिक चतुर होना चाहिये । अर्थात् अपनी समझका मूल्य विशेष समझकर, सत्पुरुषकी दशा उसमें समाहित होती है ऐसा मानकर, मानो उसे सिरोपाव देते हों कि 'इतने पुरस्कारके योग्य है' ऐसी वृत्ति इन शब्दोंसे ज्ञात होती है। सत्पुरुषकी परीक्षा करनेकी सामर्थ्य किसमें है? जो सत्पुरुषको बराबर पहचाने वह सत्पुरुष जैसा ही होता है। ता. १७-२-१९२६, सबेरे [तीर्थंकर प्रकृतिकी स्थितिका उत्कृष्ट बंध कब पड़ता है, इस विषयमें 'गोमट्टसार कर्मकांड' के द्वितीय अधिकारके वाचन प्रसंग पर] समकितका कितना माहात्म्य है! असंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्यके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नरकगतिके सन्मुख होने पर होते हैं और उस समय तीर्थंकर प्रकृतिकी स्थितिका उत्कृष्ट बंध भी पड़ता है। समकित है इसलिये उसकी उपस्थितिमें जो-जो क्रिया होती है वह पुण्यरूपसे परिणत होती है। रक्तकी बड़ी नदियाँ बहें वैसे भरतके संग्रामके प्रसंग पर गणधर भगवान पुंडरीकने ऋषभदेव भगवानसे पूछा-“अभी भरत चक्रवर्तीके परिणाम कैसे होंगे?" भगवानने कहा, “तुम्हारे जैसे।" क्योंकि उनकी समझ बदल चुकी थी, जिससे दर्शनमोह रहित क्रिया होती थी। नहीं तो 'सम्मद्दिठ्ठी न करेइ पावं' ऐसे सूत्र महापुरुष क्यों कहते? यह किसका माहात्म्य है? समकितका । जैसे चंदनवृक्षके समीपवर्ती अन्य नीम आदि वृक्ष भी सुगंधित हो जाते हैं वैसे ही समकितीकी कषायवाली क्रिया भी समकितकी उपस्थितिमें पुण्यरूपसे परिणत होती है। समकित पुण्य है और मिथ्यात्व पाप है, ऐसा 'मूलाचार' एवं 'गोमट्टसार में भी आता है। जिसका ऐसा माहात्म्य है उसे छोड़ कर इस भवमें गुड्डेगुड्डीके खेल जैसे सुख और समृद्धिके पीछे समय बिताना क्या समझदार विचारवान पुरुषको शोभा देता है? इस भवमें तो समकित ही प्राप्त करना है, फिर भले ही कितने भी भव हों उसकी फिकर नहीं है। उसकी प्राप्तिके बाद उसकी क्रिया पुण्यानुबंधी पुण्यका उपार्जन करती है और अंतमें समकित उसे मोक्षमें पहुँचाये बिना नहीं छोड़ता। आज कैसी आश्चर्यजनक बात आयी है! १. मुमुक्षु-सिद्धपुरके गोदड पारेख कहते थे कि आपसे मिलनेके बाद आपने हृदयमें ऐसा पक्षी बिठा दिया है कि वह फड़फड़ाता ही रहता है। पहले तो आरामसे खाते और चैनसे सोते थे, पर अब तो कहीं भी चैन नहीं पड़ता। प्रभुश्री-ऐसा ही है। हमें कृपालुदेव मिलनेके बाद सब मुनि हमारे संबंधमें बात करते कि इनके पास जाओगे तो वे भूत लगा देंगे। इनके शब्द भी कानमें न पड़ने चाहिये, वर्ना प्रभाव हुआ ही समझना। २. मुमुक्षु-अहमदाबादमें अभी भी ऐसा ही कहा जाता है कि जो आपसे मिलता है उसे भूत लग ही जाता है। प्रभुश्री-ऐसा ही है। क्या होता है उसका हमें कैसे पता लगें? पर कितने ही कर्मोंकी निर्जरा होती है, कर्मका पुंज क्षय होता है, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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