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________________ ३१५ उपदेशसंग्रह-२ संघने आनंदघनजीसे व्याख्यान करवानेके लिये उनके गुरुसे विनती की। वे विशेष वैराग्यमें थे, इसलिये सबको प्रिय थे। किसी कारणसे अग्रणी बड़े सेठ न आ पाये, तो भी सब आ गये हैं यों समझकर आनंदघनजीने व्याख्यान शुरू कर दिया। फिर सेठ आये । बातचीतमें सेठने कहा-'हम हैं तो आप हैं।' तब आनंदघनजी वस्त्र उतारकर नग्न होकर गुरुके पास जाकर चल निकले। किसीका कहा न माना। ___उनके गुरुके देहावसानके बाद एक पिंजियारा विद्याके बलसे आकाशमें रहकर बोलता कि 'हे बादशाह! एक कर, एक कर।' अतः बादशाहने सबको मुसलमान बनानेके लिये सताना शुरू किया। संघने मुसलमान बननेसे मना कर दिया, जिससे सबको कैदमें डाल दिया और सबसे चक्की पिसवाने लगा। तब सब साधु परामर्शकर आनंदघनजीके पास गये और उन्हें सब बात बतायी। जैसे लब्धिधारी विष्णुकुमारने सबको धर्ममें होनेवाली कठिनाईको दूर किया था और फिर प्रायश्चित्त लिया था, वैसे ही शासनको निर्विघ्न करनेके लिये उन्होंने आनंदघनजीसे विनती की। उन्होंने उसे स्वीकार किया और एक सोटी दी। उन्होंने कहा कि इस सोटीको चक्कीसे छुआना तो चक्कियाँ जाम हो जायेगी। कोई पूछे कि ऐसा किसने किया? तो कहना कि हमारे गुरुने किया। मैं अमुक स्थान पर दोपहर बारह बजे आऊँगा, बादशाहको वहाँ आनेके लिये कहना । बादशाह वहाँ आया, पर उसे आनंदघनजीके पास द्वारपाल जैसे दो बाघ दिखायी दिये जिससे वह आगे बढ़ न सका, उसे बुलाने पर भी वह न जा सका। तब आनंदघनजी बाघके पास होकर बादशाहके पास गये और कहा"क्यों सबको सता रहा है?" बादशाहने कहा-'बारह बजे खुदाका हुक्म सुनायी देता है।" इतनेमें तो बारह बज गये और आकाशवाणी हुई, तब आनंदघनजीने एक वस्त्र ऊपर उठाया कि पिंजियारा नीचे गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने लगा। आनंदघनजीने कहा, “यह तो तेरे गाँवका पिंजियारा है, अब किसीको धर्मके लिये मत सताना।" पिंजियारेसे भी कहा-“इसमें तेरा कल्याण नहीं है।" अंजनकी आवश्यकता है। यशोविजयजीको आनंदघनजीके समागमसे वह प्राप्त हुआ था। उसके बाद लिखे गये ग्रंथ मध्यस्थ दृष्टिसे लिखे गये हैं। शामको समभाव, धैर्य, क्षमा, समतासे सहना-यह वीतरागकी आज्ञा है। समझकी जरूरत है। चाहे जैसे पापी, वेश्या और चंडालका भी उद्धार हो गया है। लीक बदलनेकी जरूरत है। गाड़ीकी लीक बदलनेमें कठिनाई तो होती है, पर लीक बदलते ही दिशा-परिवर्तन हो जाता है। आकाश-पातालका अंतर पड़ जाता है। अनादिकालसे जीव लोभके कारण ही अटका हुआ है। उस शत्रुको मारनेके लिये, लोभ छोड़नेकी बुद्धिसे खर्च किया जाय तो उसका फल अच्छा है। ऐसा ही करने योग्य है। ता.१६-२-१९२६ [सुबह चार बजे 'परमश्रुतप्रभावकमंडल की ओरसे प्रकाशित होनेवाली 'श्रीमद् राजचंद्र की द्वितीय आवृत्तिके लिये लिखी गयी प्रस्तावनाके प्रूफके वाचनके प्रसंग पर] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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