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________________ ३१२ उपदेशामृत मुनि मोहन०-समकितीको तो पता रहता है, उसके परिणाम सत्पुरुष कथित लक्ष्यके अनुसार रहते हैं। भिन्नता भासित होनेसे स्वयं वेदना आदिसे अलग है ऐसा भान रहता है। और दूसरे बुलाते हों तो सुनता है, पर अपनी गति सुधारनेके प्रयत्नमें होनेसे सगे-संबंधी बुलावें तो भी नहीं बोलता-ये कोई भी आत्माको मदद नहीं कर सकते ऐसा वह जानता है। अतः जो सच्ची शरण है या सत्पुरुषसे प्राप्त स्मरण है उसमें ही अपना उपयोग रखनेमें वह प्रयत्नशील रहता है। सौभाग्यभाईने अंत समयमें अंबालालभाईको बताया था कि "अंबालाल, सौभाग्यको अन्य ध्यान नहीं है, पर आप उच्च स्वरसे स्मरणमंत्र बोल रहे हैं उसमें, मुझे अपना तार जुड़ा हुआ हो तो भी उसमेंसे विक्षेप पाकर जुड़ना पड़ता है।" “शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजु कहिये केटलुं? कर विचार तो पाम." "छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म." इन गाथाओं पर विचार कर्तव्य है। प्रभुश्री ता. १४-२-१९२६, सबेरे "छूटे देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म; नहि भोक्ता तुं तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म.'' "शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम; बीजुं कहिये केटलुं? कर विचार तो पाम." इन गाथाओं पर बारंबार विचार कर्तव्य है। शामको उठनेके बाद यों ही जागते हुए रात बिताई है। अब ऐसा जोग मिला है तो सोचकर निश्चित कर लेना चाहिये न? मृत्युके समय सौभाग्यभाईका उपयोग इस 'शुद्ध बुद्ध....." वाली गाथामें था। मुनि मोहन०-अंबालालभाईकी अंगुलि महादेव्याः कुक्षिरनं शब्दजितवरात्मजम् । राजचंद्रमहं वंदे तत्त्वलोचनदायकम् ।। इस श्लोकके चार चरण बोलते हुए चार अंगुलिके पैरवों पर रहती और दो शब्दोंका स्मरण प्राप्त होनेके बाद दो अंगुलि पर फिरती ऐसा देखा है। मृत्युके समय भान नहीं था पर वह क्रिया चलती रही। धारशीभाईकी मृत्युके समय मंत्रका स्मरण करानेवाले व्यक्ति चौबीस घंटे उनके कमरेमें बोलते ही रहें ऐसी व्यवस्था की गई थी। __प्रभुश्री-धारशीभाईका क्षयोपशम अच्छा था। हमारे प्रति प्राण न्यौछावर करे ऐसा उनका प्रेम था। कई बार हमें खुले मनसे कहते कि ऐसाका ऐसा भान मृत्युके बाद भी रहे तो कितना अच्छा हो! गुण, पर्याय, केवलज्ञान आदिकी बातें वे भली भाँति कह सकते थे। यह पूर्वोपार्जित क्षयोपशम है। किन्तु समझ कुछ अलग ही वस्तु है। उन्हें आँखका दर्द था जिससे झटका लगने पर आँख दबाये रखते । ज्ञानी वेदनीयकर्मको वेदनाके रूपमें अलग ही जानते हैं। वह आत्माका धर्म नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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