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________________ उपदेशसंग्रह - २ ३१३ 1 कृपालुदेवके समागमकी तो बलिहारी है ! जो द्रव्य, गुण, पर्यायकी बातें करना नहीं जानते उनका भी कल्याण होता है, ऐसा धर्मका मार्ग है । मृत्युके समय क्या ध्यान रखना है? यदि सत्पुरुषमें उसकी दृष्टि रहे तो उसका कल्याण है । जैसे स्त्री एक बार निश्चित करती है कि यह मेरा पति है, फिर उसीके नामकी चूड़ियाँ पहनती है, वैसे ही चलते, फिरते, काम करते उसीका चिंतन, स्मरण, भजन, गुणकीर्तन रहा करे और अंतमें भी उसीमें चित्त रखे तो बेड़ा पार हो जाय! 'गोमट्टसार' में भी आता है कि केवली या श्रुतकेवलीके चरण समीप क्षायक समकित होता है । ये ( कृपालुदेवकी ओर देखकर ) श्रुतकेवली हैं, इन्हें छोड़कर दूसरेको पकड़ना तो आँचल (स्तन) को छोड़कर गलथना (बकरीके गलेका आँचल ) पकड़ने जैसा है। उससे क्या दूधका स्वाद आयेगा ? सत्पुरुष या संत कहे वैसे करना चाहिये । वे करे वैसा करनेमें सदा कल्याण नहीं होता । अहंकार रखनेमें जीव मर जाता है । आँखका मींचना भी अहंकारके बिना नहीं होता। पर ज्ञानीकी गति (दशा) तो ज्ञानी ही जानते हैं। उनकी बात तो एक ओर रखें। बाकी हमारे जैसोंके बाह्य आचरणको देखकर कोई बाह्य अनुकरण करे तो कल्याण हो सकता है ? अंबालालभाई अंगुलियों पर अंगूठा फिराते थे, वैसे मैं भी कभी-कभी अंगुलियाँ हिलाता हूँ, यह देख कोई वैसा ही करके अपनेको ज्ञानी मानें तो ऊँट (अहंकार) खड़ा हो जाय और मारे जानेका प्रसंग आ जाये न ? I 1 किसी भी बात का गर्व करने जैसा नहीं है । ये तो पुराने हैं और ये नये समागमी हैं, ऐसा भी नहीं करना चाहिये । पुराने तो पड़े रह जायें और नये आगे बढ़ जायें, अपना काम कर लें, ऐसा यह मार्ग है । दीनता और दासत्व भूलना नहीं चाहिये। “हुं तो दोष अनंतनुं, भाजन छं करुणाळ ।” हे प्रभु ! इनके वचन याद आते हैं कि क्या अजब गजब उनकी वाणी थी ! अब समझमें आती है । किन्तु उस समय इतनी समझ कहाँ थी ? धारशीभाईने अंतमें मुझे कहा कि कृपालुदेवने आपसे जो कहा हो वह कहें। पर मैंने कहा कि वह तो पुस्तकमें आपने पढ़ा होगा, पर मुझसे कैसे कहा जाय ? आज्ञा बिना बोला नहीं जा सकता, मेरा मुँह बंद कर दिया है । फिर उन्होंने मस्तक पर हाथ रखा, समझदार थे इसलिये समझ गये कि योग्यताके बिना वस्तुकी प्राप्ति नहीं हो सकती । बाकी ज्ञानी तो इतने दयालु होते हैं कि योग्यता हो तो रास्ते पर चलते व्यक्तिको बुलाकर भी दे देते हैं । कई लोगोंकी प्रकृति होती है कि जिस - तिससे बात करते रहते हैं, पर वैसा नहीं करना चाहिये। यह तो थके हुएका मार्ग है । जिसे चाह होगी, सच्ची गरज होगी, वह तो ढूँढता ही होगा और जो ऐसा गरजवान होता है उसीको प्राप्ति होती है । ‘उपमिति भवप्रपंच’में कितनी बात आती है ? उसमें तो बहुत कहा है! एक सत्पुरुष पर दृष्टि रखनेकी ही बातें आती हैं। मैं तो यही देखता रहता हूँ कि इसने क्या लिखा है ! किन्तु योग्यताके बिना कैसे समझमें आ सकता है ? ** ता. १५-२-१९२६ सब धर्मोंमें जो तत्त्व है, वह जिनदर्शनमें समाहित है। महावीर स्वामीकी आज्ञा रागद्वेषका त्याग कर समभावमें आनेकी है। क्षमापूर्वक सहन करें। जितना अधिक क्षमाशील, उतना अधिक महान । किसी अपूर्व योगके कारण और इन सबके अंतराय टूटे हुए हैं इसलिये आज इतना बोला जा सका। नहीं तो प्रभु ! अपना सोचा कुछ होता ही नहीं। सच कहूँ तो मुझे तो बोलना ही नहीं था, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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