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________________ ३१० उपदेशामृत भी उसने जानना चाहा तो पंडितने राजाका प्रश्न बताया। यह सुनते ही वह मूर्छित हो गयी । फिर जाग्रत होने पर उस पुत्रीने कहा, “पिताजी ! इसका उत्तर तो मैं भी दे सकती हूँ ।" तब पंडितने राजाको यह बात कही कि इस प्रश्नका उत्तर मेरी पुत्री भी दे सकेगी। तब उसकी पुत्रीको सभामें बुलाया गया। उसने राजासे कहा, “राजाजी, आपके यहाँ थोड़े समय बाद एक कुमारका जन्म होगा, उसे पूछने पर आपको प्रश्नका उत्तर मिलेगा ।" राजाको पुत्र नहीं था, अतः यह सुनकर वह प्रसन्न हुआ और पुत्रीको पुरस्कार देकर बिदा किया । पुत्रका जन्म होनेपर सब प्रसन्न हुए। प्रश्नका उत्तर सुननेके लिये राजा राजकुमारका जन्म होते ही उसके पास गया और उससे प्रश्न पूछा कि कुमार मूर्छित हो गया । फिर जाग्रत होकर कुमारने उत्तर दिया कि 'अमुक देशमें एक गाँवमें एक गरीब बुढ़िया है। वह नित्य बारह बजे गाँवके बाहर नदी पर पानी भरने जाती है। उस समय उसके पास जाकर उसका घड़ा चढ़वाओगे और प्रश्न पूछोगे तो वह इसका उत्तर देगी । ' फिर राजाने वैसा ही किया और बुढ़ियासे प्रश्न पूछा तो वह भी मूर्छित हो गयी । फिर जाग्रत होकर उसने कहा कि “मैं आपके कुमारके पास आकर बात करूँगी।" फिर सब एकत्रित हुए । मूर्छा जाने पर, तीनोंको जातिस्मरण ज्ञान हुआ था जिससे उन्होंने पूर्वभवकी बात जानी थी । फिर कुमारने राजासे पूर्वभवकी बात कही । तब राजा भी मूर्छित हो गया और उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हुआ । तब कुँवरने कहा, "राजाजी, अब आप अपने आत्माका कल्याण करिये और मुझे राज्य सौंप जाइये । किन्तु बारह वर्ष बाद आकर मुझे समझाइयेगा, चेताइयेगा । इस बुढ़ियाको इसकी आजीविकाके लिये कुछ धन दे दीजिये । यह पंडितकी पुत्री साध्वी होनेवाली है । " पूर्व जन्मका लकड़हारा मरकर देव हुआ था और देवका आयुष्य पूरा कर राजा हुआ था । लकड़हारेकी स्त्री मरकर ढोर पशुके अनेक भव पूरे कर चंडालके यहाँ जन्मी थी, यह वही बुढ़िया थी। लकड़हारेकी पुत्री भी अच्छे भव कर पंडितके यहाँ जन्मी थी । कुछ कर्म जो तीव्र होते हैं वे तुरत भी उदयमें आते हैं । क्रोधका फल तुरत भी मिलता है । कुछ कर्म हजारों वर्ष बाद भी उदयमें आते हैं तब फल देते हैं । किन्तु किये हुए कर्मोंको भोगे बिना छुटकारा नहीं है । ऐसा कहा जाता है कि धर्मराजकी बहीमें लिखा जाता है, उसी प्रकार आत्मा कर्मोंके कारण भवोभवमें भटकता रहता है। किसी संतको ढूंढकर उसके कथनानुसार शेष मनुष्यभव बिताये तो कल्याण हो सकता है । इस मिस्त्रीका क्षयोपशम पूर्वभवके सुकृत्योंके कारण अच्छा है । 'तत्त्वज्ञान' तुम्हें ले लेने जैसा है । मिस्त्री - प्रभु! मैं लाया हूँ । प्रभुश्री - ( उसमें से क्षमापनाका पाठ निकालकर ) चंडीपाठकी भाँति नित्य नहा-धोकर यह पाठ बोले और इसे कण्ठस्थ कर लेवें । दोहे हैं, आत्मसिद्धि है - जैसे जैसे समागम होगा वैसे वैसे यह सब अमूल्य लगेगा। प्रभु ! इतनेमें तो सब शास्त्रोंका सार समाया हुआ है । इनका एक भी वाक्य कल्याणकारक है। किसी संतके योगसे बात सुनकर उन्होंने जो बताया हो तदनुसार कार्य प्रारंभ कर देना चाहिये | 'एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी' - यह बात सुनी है ? मिस्त्री - जी नहीं । प्रभुश्री - सियार, खरगोश और साँपमें मित्रता थी । आग लगी तब सियारने पूछा, “साँप भाई, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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