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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३०९ किसी समीपमुक्तिगामी जीवके हृदयमें यह बात बस जाये तो उसका कल्याण हो जाये, ऐसा यह वीतराग मार्ग है। ता. १२-२-१९२६ ['मूलाचार में से अन्यत्वभावनाके वाचन प्रसंग पर] अनमोल क्षण बीत रहा है प्रभु! इस मनुष्यभव और इन संयोगोंमें सावचेत होने जैसा है। वैराग्य और बोधकी आवश्यकता है। यह वैराग्य कैसा होगा? कुछ अच्छा न लगे। खाना, पीना, लेना, देना क्या यह आत्माका धर्म है? इसमें तो कुछ अलग ही निकला! ज्ञानीने जीवका स्वरूप जाना है और हम केवल इसीमें ही आसक्त रहें तो क्या कुछ समझा है ऐसा माना जायगा? रामचंद्रजीका कैसा वैराग्य था! 'योगवासिष्ठ'में ऐसा सुंदर वर्णन है कि उसे पढ़कर ऐसा लगने लगता है कि कहाँ वह दशा और कहाँ हमारा हीन पुरुषार्थ और विपरीत प्रवृत्ति! उनका इतना वैराग्य, ज्ञान होनेके पहले था, वसिष्ठ द्वारा वस्तुका-आत्माका स्वरूप समझनेके पहले था, तब ज्ञानीका इनसे कितना गुना होगा? धन्य है उस पुरुषको, कृपालुदेवको! किसी पुण्यके योगसे किसी सत्पुरुषका समागम प्राप्त होता है। उसमें चेत जायें तो काम बन जाय । पुण्यके संयोगसे ही मनुष्यकी उन्नति होती जाती है, आगे आगे बढ़ता जाता है। आज जो ये संयोग मिले हैं, वे पहले किये गये किसी कर्मका फल हैं। यह मिस्त्री पहले कितने वर्ष यहाँ रहा, पर कुछ कहा नहीं गया। आज अचानक उसे यह संयोग प्राप्त हो गया है। हमें कहना हो तो भी कुछ कहा नहीं जाता; और कभी-कभी तो एक अक्षर भी नहीं बोलनेका सोचकर आते हैं किन्तु भाषाके पुद्गल बँधे हुए हैं तो मनमें बोलनेकी अनिच्छा होने पर भी बोलना हो जाता है। मिस्त्री-हम अभी जो कर्म करते हैं उसका फल इस भवमें मिलेगा या अगले भवमें? प्रभुश्री-कोई महात्मा तपका समय पूरा होने पर पारणेके लिये बस्तीमें आये । उस समय एक लकड़हारेने उन्हें बुलाकर अपने भोजनमेंसे दो रोटियाँ भिक्षामें दे दी। वे खड़े खड़े ही भोजन करके चले गये। उसकी स्त्री खाना बना रही थी, उसके मनमें ऐसा लगा कि यह कहाँसे आ गया? अब मुझे अधिक रोटियाँ बेलनी पड़ेगी। किंतु उस लकड़हारेके पुत्रके मनमें यह विचार आया कि पिताजीने अपने भोजनमेंसे दो रोटी दानमें दे दी है अतः मैं अपने भोजनमेंसे आधी रोटी पिताजीको दे दूं। ऐसा सोचकर उसने आधी रोटी पिताजीको दे दी और नयी रोटी बने तब तक भोजन चालू रखनेको कहा। उसकी बहन भी खाने बैठी थी। उसने भी भाईकी भाँति आधी रोटी पिताजीको दे दी। वह भव पूरा होनेपर लकड़हारा देव हुआ और फिर दूसरे भवमें राजा हुआ। उसने एक बार जनक राजाकी भाँति सभामें प्रश्न पूछा कि दत्ताका फल क्या है और अदत्ताका फल क्या है? बड़े बड़े पंडित इसका उत्तर न दे सके। फिर पंडितोंने राजासे समय माँगा कि अमुक समयमें हम आपको उत्तर देंगे। वह समय पूरा होने आया, पर किसीको उत्तर नहीं सूझा । अतः 'राजाको क्या मुँह दिखायेंगे?' ऐसा सोचकर निराश होकर राजपंडित उतरे हुए मुँहसे घरमें चक्कर लगा रहा था। यह देखकर उसकी पुत्रीने पूछा-“पिताजी! आपको ऐसी क्या चिंता है कि नित्य आपका शरीर सूखता जा रहा है?" पंडितने कहा-“कुछ नहीं बेटी, तुझे जानकर क्या करना है?" फिर १. अदत्ता-निष्फल दान। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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