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उपदेशामृत दुर्गाप्रसादके पास 'तत्त्वज्ञान' है और बहनके पास भी है। उसमेंसे वे पढ़ते रहें ऐसा कहना और महाराजश्रीने धर्मवृद्धिके लिये कहा है ऐसा सूचित करना। ये शब्द सुनकर भी जीव पुण्यबंध करे ऐसा निमित्त है। सारी बात भाव पर टिकी हुई है न? अच्छा निमित्त हो तो पुण्यबंध होता है
और बुरा निमित्त हो तो पापबंध होता है। कर्मके संयोगसे प्रवृत्तिमें पड़ना पड़े, यह अलग बात है; पर न लेना न देना, फिर भी मात्र संकल्प-विकल्प या निंदामें प्रवृत्ति कर जीव कितने अधिक कर्म बाँध लेता है?
['उपमितिभवप्रपंच का वाचन पुनः प्रारंभ] “पवित्र पुरुषोंकी कृपादृष्टि ही सम्यग्दर्शन है" ऐसा वचनामृत कृपालुदेवका है। ऐसी ही यह गहन बात है। कर्मविवर प्रवेश करने दे तभी किसी सत्पुरुषके सन्मुख हुआ जा सकता है।
मुनि मोहन०-वसोमें एक भावसारका पुत्र जो सप्त व्यसनका सेवन करनेवाला था, वह भी कृपालुदेवकी सेवामें रहनेको तत्पर हुआ यह सत्पुरुषकी वाणीका कितना बल है! __ प्रभुश्री-भूतकालमें कैसे कैसे जीवोंका उद्धार हो गया है! वेश्या, महा पापी, चंडाल और घोर कर्म करनेवालोंका भी उद्धार हो गया है। सत्पुरुषोंकी कृपादृष्टिके बिना ऐसा कैसे हो सकता है? कर्मविवर प्रवेश करने दे तभी इन पुराणपुरुषकी कृपादृष्टि प्राप्त होती है। एक बार उस मार्ग पर चढ़ जानेवाला तो मोक्ष जायेगा ही। कैसी अद्भुत बात है!
ता. ९-२-१९२६ प्रभुश्री-आवश्यक याने क्या? मुमुक्षु-आवश्यक अर्थात् अवश्य करने योग्य । प्रभुश्री-(मुनि मोहनलालजीसे) आप क्या समझें? मुनि मोहन०-मोक्षके लिये करने योग्य क्रिया।
प्रभुश्री-पुस्तकमेंसे पढ़िये। 'मूलाचार का वाचन
अवश-कषाय और रागद्वेषके वशमें नहीं वह अवश, उसका आचरण ही आवश्यक है। प्रभुश्री-धीरे-धीरे सुना जाय तो जानकारी प्राप्त होती है। यह वैष्णव था, पर हमें याद न रहे वह भी यह बता दे, पूर्ति करे ऐसा यह पढ़कर ही जानकार हुआ है। यह गुडगुडिया भी क्या जानता था? पर यह भी पढ़कर जानकार बना है और बता सकता है। क्षयोपशमका सुलटा उपयोग किया जाय तो हितकारी है, वर्ना उलटा उपयोग हो उतना बंधन है। बहुत सावधानीकी जरूरत है। शास्त्र शस्त्र बन सकता है, पर किसी सत्पुरुषकी दृष्टिसे वाचन हो तो लाभकारी है।
आवश्यक छह प्रकारके कहे गये हैं-(१) सामायिक, (२) चौबीस तीर्थंकर स्तवन, (३) वंदना, (४) प्रतिक्रमण, (५) प्रत्याख्यान, (६) कायोत्सर्ग। छठे कायोत्सर्गमें आसनकी बात आती है। पलथी, सुखासन आदि चौरासी आसन हैं। पद्मासनमें पहले बाँया पाँव दाँयी जाँघ पर रखकर
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