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उपदेशसंग्रह-२
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दाँया पाँव ऊपर रहे यों दोनों पाँवोंकी पगथलियाँ जाँघोंके ऊपर रखी जाती है। इसमें पहले बाँया हाथ दो पाँवोंके बीच सीधा रखकर उसके ऊपर दाँया हाथ सीधा रखा जाता है, यह किसलिये ? पाँवोंसे अनेक पापकर्म बँधते हैं अतः थोड़ी देर ( दो घडी) पाँवोंको संयममें रखनेके लिये । इसी प्रकार हाथसे बहुतसे कर्मोंका बंध होता है उनका संवर करनेके लिये इस आसनमें हाथ भी एकके ऊपर एक रखा जाता है। दूसरी इंद्रियाँ तो किसी वस्तुके स्पर्श होने पर जानती हैं, किन्तु मन और आँख तो दूरसे भी कर्म बाँध लेते हैं । अतः दृष्टिको नाक पर स्थिर की जाती है जिससे वह भटकती न फिरे और कर्म न बाँधे । अब रहा मन । उसके लिये किसी सत्पुरुषके वचन 'हे भगवन् ! मैं बहुत भूल गया। मैंने आपके अमूल्य वचनों पर ध्यान नहीं दिया ।" इसे मनसे लक्ष्यमें लेकर इस पर अपनी बुद्धिके अनुसार विचार करें अथवा 'हे प्रभु! हे प्रभु! शुं कहुं ?' या 'छह पद' के पत्रके विचारमें मनको रोकें । यों कमसे कम दिनमें घड़ी दो घड़ी अवश्य करना चाहिये। ऐसे पवित्र वचनोंके उपयोगमें मन लगा हो तो, बेकार बैठा मन पाप करता रुके ।
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ता. १०-२-१९२६ [कौनसे निमित्त (नोकर्म) मति, श्रुत आदि ज्ञानको तथा निद्रा आदि द्वारा दर्शनको रोकनेमें सहाय करते हैं, इस विषयमें श्री गोमट्टसारमेंसे वाचनके प्रसंग पर ]
मुमुक्षु - जहाँ रागद्वेषके परिणामवाले भाव हों वहाँ बंध है । संक्लेश परिणामसे बंध होता है ।
प्रभुश्री - विचार करनेके लिये कह रहा हूँ । भाव तो ऐसे होते हैं कि मुझे अमुक काम कभी नहीं करना है । उसे दूर करनेका यथाशक्य प्रयत्न होता हो फिर भी वह आकर खड़ा हो जाता है और उसमें जीव तदाकार हो जाता है, तब क्या समझना चाहिये ?
मुनि मोहन० - पुरुषार्थ जितना कम होगा उतना ही बंध होगा । आत्माकी शक्ति (वीर्य) जहाँ विशेष प्रकट हुई हो वहाँ कर्म दिखायी देकर निर्जरित हो जाते हैं । जहाँ कर्मकी शक्ति आत्माकी प्रकट शक्तिसे अधिक हो, वहाँ बंध होता है, पर उसके लिये किये गये प्रयत्नके प्रमाणमें मंद होता है । तीर्थंकरको बंध.....
प्रभुश्री - (बीच में रोककर ) 'सम्मद्दिट्ठी न करेइ पावं' ऐसे बोल तो शास्त्रमें आये हैं । अतः आप जो कहना चाहते हैं वह उचित नहीं है ।
जिसके दूर करनेके परिणाम होते हैं उसे भोगते समय खेद ही खेद होता है । परंतु कर्म छोड़ता नहीं है, तब उसे 'उदय' जानते हैं । ध्यानमें बैठे हों तब जिसका कोई विचार ही न हो वह आकर खड़ा हो जाता है। बंदरकी पूँछके समान, जिसको मनमें लाना ही न हो वह आकर दिखाई दे तो उसका क्या किया जाय ? यह पूछना है ।
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['मूलाचार 'मेंसे 'निषिद्यका' और 'आसिका'के वाचन प्रसंग पर ]
आसिका और निषिद्यका यों क्रमको समझना योग्य है । गुरुके पाससे उठना पड़े, किसी शरीरके या व्यापारके निमित्तसे, तो मनमें क्या रहता है ? भाड़में जाय यह काम कि मुझे इसके लिये समय खोना पड़ेगा ! जैसे सीताने 'पद्मपुराण' में कहा है कि 'धिक्कार है इस स्त्रीवेदको कि जिसके
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