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________________ उपदेशसंग्रह-२ ३०१ समझें। किन्तु 'मैं समझता हूँ वैसा ही है' ऐसा किसीको भी नहीं मानना चाहिये। किसीको अधिक क्षयोपशम हो तो वह कुछ अधिक कह सकता है। पर ज्ञानीका कहना इतना ही है क्या? ज्ञानीके एक एक शब्दमें अनन्त आगम समाये हुए हैं। योग्यताकी कमी है। ता.४-२-१९२६ ['मूलाचार में से प्रतिक्रमण अधिकारके वाचन प्रसंग पर] __ प्रभुश्री-इस जीवने आत्माके सिवाय सभी भावोंमें जहाँ जहाँ ममत्व किया है-यह मेरा लड़का है, यह किसीका लड़का है, यह मेरा घर है, ये मेरे कपड़े हैं, संक्षेपमें, जहाँ अंतरंगमें 'मैं' और 'मेरा' रहा हुआ है, वहाँ मिथ्यात्व है। असंयम अर्थात् अविरति या व्रतका अभाव । वृत्ति रुकी नहीं है वही असंयम है। वृत्तिके निरोधको ही तप कहा गया है। रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, विषय और कषाय-ये इस ठीकरे(शरीर)में लेकर जीव भ्रमण करता है। जहाँ भी जाता है वहाँ 'उपमितिभवप्रपंच के निष्पुण्यककी तरह दुर्गधित अन्न साथमें लेकर जाता है और रास्तेमें पाथेयकी तरह खाता रहता है। शुभाशुभ योगोंमें-संयोगोंमें प्रमाद कर्तव्य नहीं है। हे गौतम! समयमात्रका भी प्रमाद मत करो, ऐसा शास्त्रमें कहा गया है। प्राण लिये या ले लेगा ऐसा हो रहा है, यह ठीकरा टूट जायेगा। फिर इसमेंका कुछ भी काम नहीं आयेगा। जितना समय अच्छे निमित्तोंमें बीता, उतना ही सार्थक है। १. मुमुक्षु-'उपमितिभवप्रपंच'में 'कर्मविवर' द्वारपाल निष्पुण्यकको सुस्थित महाराजाके द्वारमें प्रवेश करने देता है, इसका क्या अर्थ है ? २. मुमुक्षु-'कर्मविवर' अर्थात् 'कर्मका विच्छेद' होने पर अंतरात्मामें प्रवेश होता है। सात प्रकृतिका उपशम हो तब पहले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय आदि सर्व कर्मप्रकृतिका समय एक कोडाकोडीसे कुछ कम रहता है, तब कर्म उसे मार्ग देते हैं, तब सुस्थित महाराजाकी उस पर दृष्टि पड़ती है। फिर उसे दर्शन होता है। धर्मबोधकरकी तीन दवायें (१) शलाका अंजन (२) तत्त्वप्रीतिकर पानी और (३) परमान्न, उसका पात्र निष्पुण्यक जीव बनता है। अधःप्रवृत्तिकरण आदि सामग्री प्राप्तकर जीव पुरुषार्थ करता है तो सद्भाग्यसे उसका सद्धर्ममें प्रवेश होता है। कई बार उस द्वारके सामने वह आता है, पर या तो स्वयं भूल जाता है या कर्म उसे प्रवेशकी आज्ञा नहीं देता। प्रभुश्री–मनुष्यभव दुर्लभ है। उसमें ऐसा योग, वीतरागवाणीका श्रवण विशेष दुर्लभ है। भले ही समझमें आये या न आये, पर हमारे कानमें शब्द पड़ने ही महा दुर्लभ है। ता.४-२-१९२६ ('मूलाचार मेंसे गुरुके आगे विनयपूर्वक आलोचना करना, अन्य लोगोंके समक्ष करना और स्वयं पश्चात्तापके रूपमें एकांतमें करना, इन तीन प्रकारोंके वाचन प्रसंग पर) दूसरोंके आगे अर्थात् सभाके समक्ष अपने दोषोंकी क्षमायाचना करना, यह अधिक दीनताको प्रदर्शित करता है। यों पंच या संघके समक्ष क्षमा माँगनेसे हृदय अधिक हल्का हो जाता है और पुनः वैसा पाप होनेकी संभावना कम रहती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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