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उपदेशामृत
ता.६-२-१९२६ 'गोमट्टसार में से कर्मकांडका वाचन
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइसंबंधो।
कणयोवले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं ॥२॥ जो अन्य कारण विना वस्तुका सहज स्वभाव होइ जैसे अग्निका ऊर्ध्वगमन, पवनका तिर्यग्गमन, जलका अधोगमन स्वभाव है ताकौ प्रकृति कहीए वा शील कहीए वा स्वभाव कहीए ए सब एकार्थ है।
प्रभुश्री-('सहज' शब्द सुनकर) इसने क्या काम किया है! कैसी 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' मंत्रकी योजना की है प्रभु! उस समय तो कुछ पता नहीं था, पहचान नहीं थी। पर अब समझमें आता है कि अहा! कितना उपकार किया है! समय तो बीतता ही जा रहा है, कुछ रुकता नहीं। इनके उपकारका तो बदला चुकाया नहीं जा सकता, चमड़ी उतरवाकर उसके जूते सिलवायें तो भी बदला नहीं चुकाया जा सकता।
- मेरा लाडला बहुत गहरा उतरा है। इसमें तो भारी अर्थ समाया हुआ है। घाती अघाती होने पर भी आठों कर्मोंकी परस्पर कैसी क्रमपूर्वक योजना की है!
संसार स्वप्नके समान है। पैर रखते पाप है, मृत्युका भय सिर पर है। यदि मरना न हो तो भले ही आलस्य करें, पर वह तो छोड़ेगी नहीं। बहुत पुण्यसे मनुष्यजन्म मिलता है, उसे व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिये। सावधान हो जाना चाहिये। घडीभरमें फूट जाय ऐसा यह शरीर है। इसका भरोसा करने जैसा नहीं है। पाप और पुण्य साथमें चलते हैं, अन्य सब यहीं पड़ा रह जाता है। यह हम सब अपनी आँखोंसे देख रहे हैं। त्याग और वैराग्यकी आवश्यकता है। कमाईके लिये या व्यापारकीर्तिके लिये इतना सारा करते हैं, तो इस जीवका अनादिकालसे परिभ्रमण हो रहा है उसे दूर करनेकी उत्कंठा नहीं होनी चाहिये? इसके (जीवके) प्रति अपना फर्ज निभाना चाहिये, इसकी सेवा करनी चाहिये । 'आत्मघाती महापापी।' यह बात सभी दर्शनोंमें मान्य है। विष्णु, महादेव या माताको माननेसे मोक्ष नहीं होगा। करनीका फल मिलेगा, किन्तु सच्चे देव 'आत्मा'को पहचाने बिना मोक्ष नहीं है। सनातन जैन, वेदांत-सभीमें आत्माका ही लक्ष्य रखा गया है। पापसे छूटनेका मार्ग सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे धर्मकी पहचान है। इसमें तो कोई अपूर्व बात आ जाती है। इतने भव व्यर्थ चले गये तब इस शेष भवको तो धर्मके लिये जाने देना चाहिये । इसमें जो समय बीतेगा वह व्यर्थ नहीं जायेगा। इसीको ढूँढना, इसीकी शोध करना, इसीके विचारमें रहना । प्रभु! कैसे-कैसे जीवोंका उद्धार हो गया है?
ता.७२-१९२६
['उपमिति भवप्रपंच के वाचनके प्रसंग पर] यह आत्मा कबसे बँधा हुआ है, इसका कुछ पता नहीं है। अनादिकालसे यों ही भटक रहा है। उसमें से मनुष्यभव प्राप्त किया तो भी भिखारीका भिखारी ही रहा-सुखकी भीख, पैसेकी भीख, वैभवकी भीख, मानकी भीख, यों विषय, कषाय और तृष्णाओंसे जीव घिरा हुआ है, इसका कुछ
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