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________________ ३०० उपदेशामृत हुए खड्डे, पत्थर आदिके कारण शिष्यके पाँव फिसलते जिससे गुरुजीको झटके लगते थे, तब कन्धे पर बैठे-बैठे गुरु शिष्यके लोच किये हुए सिर पर मारने लगे। पर शिष्यके मनमें गुरुके दोष न आये। उलटा उसे ऐसा लगा कि मैं कैसा निर्भागी हूँ कि मेरे कारण उन्हें विहार करना पड़ा और वृद्धावस्थामें यों दुःख झेलने पड़े। गुरु तो उस पर क्रोध करते कि तुझे दीखता नहीं है क्या ? यों कैसे चलता है? आदि कहते, तब शिष्य 'खड्डेके कारण पाँव डोल जाता है' यों कहकर अपने दोष देखता, किन्तु गुरुजी पर द्वेष न करता। फिर विशेष सावधानीसे टेढ़ा होकर, हाथसे नीचे जाँच करते हुए धीरे-धीरे चढ़ने लगा। यों परिषह सहन करते-करते शिष्यको केवलज्ञान हो गया। गुरु मनमें सोचने लगे कि अब खड्डों-पत्थरोंसे झटके क्यों नहीं लगते? फिर शिष्यसे पूछा-'क्यों रे! अब कुछ भूल क्यों नहीं होती? क्या ज्ञान उत्पन्न हुआ है ?' तब शिष्यने कहा-'आपकी कृपासे ।' गुरुने पूछा- मतिज्ञान उत्पन्न हुआ है क्या ?' उसने कहा-'आपकी कृपासे ।' फिर पूछा-'श्रुतज्ञान उत्पन्न हुआ है क्या?' शिष्य बोला-'आपकी कृपासे ।' फिर पूछा-'अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ है क्या?' शिष्य बोला-'आपकी कृपासे।' फिर पूछा-'मनपर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ है क्या?' शिष्यने कहा-'आपकी कृपासे।' गुरुको तो आश्चर्य हुआ, फिर पूछा-'क्या केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है?' शिष्यने कहा-'आपकी कृपासे।' यह सुनकर गुरु शिष्यके कन्धेसे नीचे उतर पड़े और शिष्यके पाँव पड़कर क्षमा माँगने लगे कि 'हे भगवन् ! मैंने आपको बहुत दुःख दिया है।' यों कहकर अपनी निंदा करने लगे। तब गुरुजीको भी केवलज्ञान प्रकट हो गया। विनय वशीकरण है। विनय शत्रुको भी वशमें कर लेता है ऐसा व्यवहारमें भी कहा जाता है। विनयका त्याग नहीं करना चाहिये। ता. ३-२-१९२६ सब लोग हों तब ‘उपमिति भवप्रपंच'का थोड़ा वाचन करें। पढ़े हुए विषयको पुनः पढ़े। स्याद्वाद है। नमस्कार सोते सोते भी हो सकते हैं। यों परिणाम-भाव पर सारी बात है। मुमुक्षु-(मुनि मोहनलालजीको वारंवार उलटकर) हृदयकमलमें भावमनकी उत्पत्तिका विवेचन पढ़नेमें आया, पर विचार तो मस्तिष्कमें कर रहे हों ऐसा लगता है। किन्तु पुस्तकमें तो लिखा है कि भावमन हृदयमें उत्पन्न होता है। ऐसा क्यों है? । प्रभुश्री-ये सब अहंकारके पर्याय हैं, प्रभु! ये सब शब्द कषायके पर्याय हैं न? इन्हें छोड़ना है न? इस विषयमें कुछ कहना नहीं है। 'पूछो बड़े चचाको या बड़ी चाचीको' ऐसी बात है, वैसे ही आप हमसे पूछते हैं और हमारा कहा मानें उसकी अपेक्षा ज्ञानीका कथन मान्य करें। मैं देख रहा हूँ कि कितने ही विषयोंमें मेरी अपेक्षा आपका क्षयोपशम अच्छा है। जितना क्षयोपशम हो उतना ही बोला जाता है। इस कानसे अब सुनाई नहीं देता तो इतना क्षयोपशम कम हुआ न? अभी समझमें आता है इतना कह दें तो हिम जैसा ठंडा लगे कि ठीक कहा! पर कुछ बातें बोलने योग्य नहीं होती; सयानापन दिखाने जैसा नहीं है। शामको 'मूलाचार में नहीं पढ़ा था कि व्याख्यान आदिसे आकुल हुए चित्तवालेको नमस्कार नहीं करना चाहिये? वीतराग वाणी! उसकी खूबी कुछ और ही है! यह (मूलाचार) वीतराग वाणी कही जाती है। ज्ञानीका कथन मान्य करें और क्षयोपशमके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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