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________________ २९९ उपदेशसंग्रह-२ अकृत्रिम बने होते हैं। आज बहुत अच्छी बात आ गई। “निश्चय वाणी सांभळी, साधन तजवां नो"य; निश्चय राखी लक्षमा, साधन करवां सोय." "अथवा निश्चयनय ग्रहे, मात्र शब्दनी मांय; लोपे सद्व्यवहारने, साधन रहित थाय." ____ उपरोक्त कथनानुसार अकेले निश्चयनयकी बात सुनकर साधन, सद्व्यवहार न छोड़ें, निश्चयनयकी बात सुनकर एकांत न पकड़े। विचक्षणका मार्ग है। ता. १-२-१९२६ बोध कुछ भी हुआ हो वैसा और उतना, चाहे जितना क्षयोपशम हो तो भी लिखा नहीं जा सकता। वे सत्पुरुषके घरके वचन अन्यरूप होनेसे जूठे हो जाते हैं। स्वाध्यायमें अपना समय बितानेके लिये लिखनेमें आपत्ति नहीं है पर वह जूठन मानी जाती है। क्या मूलकी तुलना कर सकती है? वीतरागतासे बोली गई वाणी, रागरूपसे प्रदर्शित की जाय तो दूध कडुवी तूंबीमें भरकर पीने जैसा है। ता.२-२-१९२६ [विनय ही मोक्षमार्ग है। इसे कृतिकर्म कहते हैं। 'मूलाचार में तत्संबंधी वाचनके प्रसंग पर दृष्टांत] ___ एक गाँवमें एक ज्ञानी मुनि अनेक शिष्योंके साथ पधारे। उन मुनिका स्वभाव क्रोधी था, यह तो वे स्वयं भी जानते थे। अतः क्रोधका निमित्त ही न हो यों सोचकर वे एक वृक्षके नीचे सबसे दूर जाकर बैठ गये। दूसरे शिष्य भी अपने अपने आसन पसंदकर किसी-न-किसी धर्मक्रियामें दिन बिताते थे। एक दिन संध्याके समय हाथ पर मीढल बाँधे हुए एक युवक विवाह करके मित्रोंके साथ मुनिके दर्शनार्थ आया। उसके मित्र हँसोड थे। वे उनमेंसे एक साधुके पास जाकर बोले-"महाराज, इसे साधु बना लीजिये।" एक-दो बार कहा तो साधुजी नहीं बोले । फिर भी वे बोलते ही रहे, तब साधुजीने कहा-“हमसे बड़े वे मुनि वहाँ बैठे हैं, उनके पास जाइये।" दूसरे साधुके पास जाकर कहा तो उन्होंने भी वैसा ही उत्तर दिया। यों करते-करते वे अंतमें बड़े मुनि महाराज-गुरुजीके पास गये । दर्शन कर उन्हें बारबार वही बात कहने लगे। गुरु कुछ देर तो चुप रहे, पर बार-बार खूब आग्रह करनेसे वे क्रुद्ध हो गये। और उस नवपरिणीत युवकको पकड़कर बाल उखाड़कर मुनि बना लिया। उसने समझा कि महाराजने मुझ पर बड़ी कृपा की; अतः वह कुछ नहीं बोला । पर उसके अन्य साथी तो उसके मातापिताको समाचार देने उसके घर चले गये। नवदीक्षित शिष्यने गुरुजीको बताया कि यदि अब हम यहाँ रहेंगे तो हम पर विपत्ति आयेगी। अतः अब यहाँसे विहार करना ही उचित है। गुरुने कहा कि अब तो रात पड़नेवाली है, रातमें कहाँ जायेंगे? शिष्यने कहा कि वृद्धावस्थाके कारण आपसे नहीं चला जाता हो तो मैं आपको कन्धे पर बिठाकर ले चलूँगा। यों निश्चयकर सब पर्वतकी ओर चल पड़े। गुरुकी आँखसे कम दीखता था अतः उन्होंने कहा-"भाई! अब दिखायी नहीं देता।" तब शिष्यने उन्हें कन्धे पर बिठा लिया। पर्वत पर चढ़ते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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