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________________ उपदेशामृत सहन करना, समभाव रखना और क्षमाभाव धारण करना । जितने अधिक सहनशील, उतने ही महान । किसीको चोट लग गई हो तो उसको पट्टी बाँधनेमें या ऐसे अन्य परमार्थके काममें समय बीते वह बुरा नहीं है । यह तो कर्तव्य है । इसमें कहाँ ममत्व दिखाना है ? 'मेरा मेरा' करे वहाँ बंधन है। 'अरेरे! किसीने काट लिया, डंक मारा, काटता है, खुजली हो रही है, दुःख हो रहा है' ऐसा करे, इस शरीरको अपना माने वहाँ बंधन है । पर आत्माको दुःख कहाँ होनेवाला है? उसे कौन काटनेवाला है? भेदका भेद जानना चाहिये । आत्मा देहसे भिन्न है ऐसा जाननेवाला है न ? उसे जानना है । एक आत्माको जान लेनेसे सब जान जायेंगे । मोक्षका मार्ग स्पष्ट है । तलवार मैदानमें पड़ी है। जो वार करे उसके बापकी है । रागद्वेष न करें, मोह न करें। क्षमासे सहन करें। इसमें कोई शास्त्र मना कर सकता है क्या ? यही मोक्षका मार्ग है और यही करना है । सर्व ज्ञानियोंने यही कहा है। २९८ I हम उपदेश नहीं देते, पर इनका कहा हुआ स्वाध्यायके रूपमें कह बताते हैं । यह मीठी कुईका पानी है । किसी बातका गर्व नहीं करना चाहिये। किसीको अधिक याद रहता हो या बोलना आता हो तो उसका भी वापस अभिमान हो आता है। मोक्षका मार्ग ऐसा नहीं है कि जिसे समझमें आये, याद रहे या अधिक बुद्धि हो वही मोक्षमार्ग प्राप्त करे और दूसरे भोले-भालेको प्राप्त ही न हो । उलटा क्षयोपशमवालेको अधिक ध्यान रखने जैसा है । उसकी निंदा नहीं करनी है उसे अपनी शक्तिके अनुसार क्षयोपशमका उपयोग करना है । जैसे पत्ते पड़े हैं, जैसा बाँधा है वह सब अब चाहे जैसे पूरा करना है । समय बिताना है । इतने अधिक भव तो व्यर्थ गये ही हैं, तब यह इतना भव - अल्प आयुष्यके शेष वर्ष - अब तो इसके लिये ही बिताऊँ ऐसा कर्तव्य है । ज्ञानीने जो देखा है, कहा है वह मुझे मान्य है । उसकी मान्यता मान्य करने जैसी है । और यह तो कोई अल्प क्षयोपशमवाला भी कर सकता है । उसकी मान्यताको मान्य करनेमें क्षयोपशमवालेको उलटी कठिनाई आती है । पर भोलेभाले जीव तो इसी प्रकारके काम निकाल लेते हैं । कुछ क्षयोपशमसे (बुद्धिचातुर्य से) किसीको 'यह ज्ञानी है, महान है' ऐसा नहीं समझना चाहिये। भले ही आवरण हो, पर श्रद्धा काम निकाल देती है । साल भर बैठा-बैठा सुनता हो पर किसी समय ऐसा योग आनेसे यदि हृदयमें बैठ जाये तो कल्याण हो जाता है 1 इन्होंने दस-पंद्रह रुपयोंका लोभ छोड़ा और आश्रममें आते रहते हैं तो इसमें कुछ बिगड़ गया ? पैसे तो कंकर हैं, मैल हैं, नाशवंत हैं, पर ऐसा योग मिलना दुर्लभ है । दया, क्षमा, धैर्य ये इनके वचन विचारणीय हैं। शास्त्र, माला, पुस्तक, ध्यान यह सब करके अंतमें करना है क्या ? आत्माकी भावना । इसका लक्ष्य न रहा तो जन्म-मरणसे छूट नहीं सकते ? भले ही ज्ञानी कहलाता हो, पर उसकी सिफारिश वहाँ नहीं चलती । इसमें कुछ अन्य आता हो तो कहिये । मुमुक्षु - अन्य कुछ नहीं है । पर कल अकृत्रिम मंदिरके विषयमें कहा था, वह अभी तक समझमें नहीं आया । प्रभुश्री - कुछ मंदिर बनाये गये होते हैं वे तो कृत्रिम कहे जाते हैं । पर जैसे मेरु पर्वत है, उसके रूप, रस, स्पर्श आदिमें परिवर्तन होता है फिर भी उसे शाश्वत कहते हैं। इसी प्रकार मंदिर, विमान आदि भी अकृत्रिम होते हैं । खड्डे, टेकरियाँ भरती जाती है न? यों ही बिना बनाये भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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