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उपदेशसंग्रह-२
२९७ जो सुख प्रतीत होता है वह भी एक प्रकारकी वेदना ही है। जीवको तो यह सब भोगना ही पड़ता है। सुख-दुःख मानना यह कुछ जीवका स्वभाव है?
"जीवनी उत्पत्ति अने रोग, शोक, दुःख, मृत्यु,
देहनो स्वभाव जीवपदमां जणाय छे."
ता.३०-१-१९२६ ['मूलाचार' में कृत्रिम और अकृत्रिम जिनालय जिस लोकमें विद्यमान हैं वह 'स्थापना लोक' यों लोकके नौ भेदमेंसे एक भेदका फिरसे वाचन हो रहा था, उस प्रसंग पर]
इसमें कुछ भिन्न बात कही गई है। अकृत्रिम तो आत्मा है और कृत्रिम तो संयोग है। भाई, मामा, लड़का, चाचा सब संयोग हैं। चोरी की हो, पराया ग्रहण किया हो, वह पचेगा क्या?
*काचो पारो खावू अन्न, तेवं छे चोरी- धन;
__काची खावी छे हरताल, तेवो छे चोरीनो माल.' इसमें सत्य क्या है? पचास सौ वर्षका आयुष्य, इसमें क्या स्थायी रहेगा? क्या कुछ साथमें जानेवाला है? पक्षियोंके मेलेके समान सबको जाता हुआ देख रहे हैं या नहीं? 'मेरा मेरा' करता है पर तेरा तो आत्मा है। परमार्थके लिये देहका उपयोग होना चाहिये । इस भवके संबंधी ही संबंधी है क्या? दूसरोंके साथ अनन्त बार संबंध हुए हैं वह नहीं गिनेगा? 'परमारथमां पिंड ज गाळ' इसमें सब आ गया। जो मानने योग्य है, क्या वह तेरा नहीं?
चौविहारका प्रत्याख्यान अच्छा है। 'अब इसे इतने समय तक तो खानेको दूंगा ही नहीं। यह कहाँ खाता है या पीता है? यह धर्म इसका कहाँ है?' यह शरीर जो माँगे उसके विपरीत करना चाहिये, विरुद्ध होनेकी जरूरत है। यह (प्रत्याख्यान) अभयदान है। विचार बदल देनेकी आवश्यकता है। बहुत दिनों तक इसे सँभाला है फिर भी भवभ्रमण मिटा नहीं। अब तो कोई माला, पुस्तक या चित्रपट देखकर क्या भावना करनी है? क्या याद रखना है? आत्मा। इस आत्मभावनाके हेतुसे सभी क्रिया करनी हैं। __मनुष्यभव बहुत दुर्लभ है। उसमें भी ये संयोग और आयुष्यकी अल्प स्थिति। अतः सावचेत हो जाना चाहिये । 'यह ज्ञानी है और यह ज्ञानी है' ऐसा माननेसे कल्याण होगा? किस तराजूसे तौलोगे? तुम ज्ञानीकी परीक्षा करोगे? तब तो तुम ही ज्ञानी हो।
१“मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे ज्झाणं॥" २“मा मुजह मा रजह, मा दुस्सह इट्ठणि?अत्थेसु।
थिरमिच्छह जड़ चित्तं, विचित्तझाणप्पसिद्धिए ॥" * अर्थ-कच्चा अर्थात् शुद्ध किये बिना पारा तथा हरताल (पीले रंगका एक चमकीला खनिज पदार्थ जो दवा, रंगाई आदिके काम आता है) उसके प्राकृतिक रूपमें सेवन किया जाय तो शरीरको गुणकारी नहीं होता, परन्तु उलटा नुकसान करता है, वैसे ही चोरीका धन टिकता नहीं। हरताल और पारा भस्मके रूपमें शरीरको बहुत पुष्टि देता है।
१. २. अर्थक लिये देखें पृष्ठ ११५
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