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________________ २९४ उपदेशामृत प्रभुश्री-कुछ कुछ बैठता है। "दर्शन षटे समाय छ, आ षट् स्थानक माही; विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांई." __इसमें कहे अनुसार जैसे-(१) आत्मा है, वैसे ही जड़ (पुद्गल परमाणु) भी हैं। (२) आत्मा नित्य है, वैसे ही जड़ भी नित्य है। (३) आत्मा कर्ता है, वैसे ही जड़ भी निज स्वभावका और उसके विभावका कर्ता है। (४) वह भोक्ता है। कर्ता है तो वह जड़ स्वभावका भोक्ता भी है। (५) आत्माका मोक्ष है, वैसे ही जड़को भी संस्कार या विभावसे मुक्त होनेरूप मोक्ष है। (६) मोक्षका उपाय है। यह भी दोनोंके लिये लागू होता है। यह घटित होता है या नहीं? फिर दूसरे प्रकारसे-छह द्रव्य हैं न? जहाँ लोकाकाश है वहाँ छहों द्रव्य हैं। तो जहाँ जड़ है वहाँ चेतन भी है न? वहाँ धर्म, अधर्म भी हैं न? दूसरे जड़ परमाणु भी है न? काल भी है न? सारे लोकाकाशमें पुद्गल-परमाणु ठसाठस भरे हुए हैं, ऐसा आगममें कहा है। अतः जहाँ छहोंका स्पर्श है उसे छह कौनेवाला गोल कहा होगा? ___एक सर्वज्ञने जो कहा हो और देखा हो उसे मान्य रखकर कल्पना करनेमें दोष नहीं है। किसी बालकको कहें कि यह डब्बी है, पर वह अपने मातापिताकी ओर दृष्टि करता है; और वे कहें कि यह चश्मा है तो बालक भी कहता है-'चश्मा है, हाँ! चश्मा है, चश्मा।' यों स्वीकार कर उसे याद कर लेता है। उसी प्रकार एक सर्वज्ञकी श्रद्धा हो उसे अन्यका मान्य तो नहीं होता, पर उसे शिरोधार्य कर कल्पना, चर्चा करनेमें आपत्ति नहीं है। मैंने जो सोचा है वह सत्य है और यह कहता है वह झूठ है, मात्र ऐसी धारणा नहीं करनी चाहिये । पर जैसा सर्वज्ञने देखा है, वैसा ही है और वही सत्य है; पर ये तो उनके कथनको समझनेके प्रयत्न हैं। दुपट्टा काँटोंमें उलझा हो तो वहाँ रुकने जैसा नहीं है, रात बिताने जैसा नहीं है। सर्वज्ञने जैसा देखा है उसे सत्य मानकर आगे बढ़ना चाहिये, योग्यता बढ़ानी चाहिये। ता. २९-१-१९२६ ['गोमट्टसार में भावमन और द्रव्यमनका स्वरूप तथा श्वासोच्छवासको पौद्गलिक कहकर शरीररूपी जड़ पुतलेको हिलाने-चलानेवाली (प्रेरक) कोई चेतन सत्ता होनी चाहिये, ऐसा बताकर आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि सूक्ष्म विचारके साथ की है, तत्संबंधी वाचनके प्रसंग पर] मुनि मोहनलालजी-अहा! ऐसा वर्णन अन्य किसी शास्त्रमें नहीं है। प्रभुश्री- "ग्रहे अरूपी रूपीने, ए अचरजनी वात; जीव बंधन जाणे नहीं, केवो जिन सिद्धांत!' इसमें क्या रहस्य भरा है? कोई भस्म या धातुपुष्टिकी दवा तिलभर खायी हो, पर उसके अनुरूप अनुपान आदि सर्दियोंमें मिल जाय तो कितनी पुष्टि होती है? यह तो झूठा दृष्टांत मात्र बातको समझानेके लिये कहा है-बाकी कृपालुदेवने ऐसा-ऐसा मर्म कहा है कि उसकी खूबी अब समझमें आती है। इनका बहुत बड़ा उपकार है, नहीं तो यह स्थिति कहाँसे आती? यह सब उनके कारण ही है। इससे समकितका पोषण होता है। जैसा हो वैसा कहना चाहिये। यों तो दूसरे महा पुरुषोंका भी उपकार मानना है, पर इनका कहा हुआ तो कुछ अपूर्व ही है। दूसरे दोहेमें कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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