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________________ २९५ उपदेशसंग्रह-२ "प्रथम देहदृष्टि हती, तेथी भास्यो देह; हवे दृष्टि थई आत्ममां, गयो देहथी नेह." कैसी बात कही है! जितनी योग्यता हो उतना समझमें आता है। कोई नाटक देखने जाये और तालियाँ बजाकर कहे-'अहा! आजका खेल कितना सुंदर है! वहाँ बंधन है; और यहाँ 'अहा!' कहे तो क्यारीमें पानी डाला जा रहा है, पोषण हो रहा है। मुनि मोहन०- "होय न चेतनप्रेरणा, कोण ग्रहे तो कर्म; जड स्वभाव नहि प्रेरणा, जुओ विचारी धर्म." इसमें 'प्रेरणा' शब्द है वह इसको सुननेके बाद विशेष समझमें आया। पहले स्फुरणा या ऐसा कुछ अनिश्चित अर्थ समझमें आया था। वह अब इस पुतलेके दृष्टांतसे 'हिलानेवाला, चलानेवाला' यों स्पष्ट समझमें आया। हमें तो कृपालुदेवके जीवनकालमें इतना उलाहना मिला है कि कुछ शेष नहीं रहा । हम कुछकी कुछ धारणा कर बैठे थे। पत्रांक ५३४ 'दिशामूढ़वाला' और ऐसे पत्रोंसे इतनी अधिक ठेस लग गई कि अब इनकी शरणसे उसका विचार ही नहीं आता। वह सब क्या कहनेकी बात है? नहीं है शरमाने जैसा? मुँह नीचा करने जैसा हमने भी किया था-कुछका कुछ मान बैठते, पर उस सच्चे पुरुषकी उपस्थिति थी, जिससे चौखट सही स्थान पर बैठ गई। मार्ग कुछ अपूर्व है! आज तक हमारे पाससे हमारे चित्रपट ले जाते और माला तथा 'तत्त्वज्ञान' हमारे हाथोंसे दी है। पर यह सब अब हमने बंद कर दिया है। .........ने भी अपने चित्रपट बनवाये, पर अपने हाथोंसे तो कैसे देते? अतः हमारे पास भेज दिये । पर हमने तो कह दिया कि हम यह जोखम नहीं उठायेंगे। हम तो किसीका चित्रपट नहीं दे सकते । हाँ, वे देना चाहें तो भले ही दें। तुम्हें अच्छा लगे तो लो! बादमें हमने हमारा चित्रपट देना भी बन्द कर दिया और सबको कह दिया कि हमारे वचन पर विश्वास हो तो कृपालुदेवका चित्रपट रखो और उनकी आज्ञा (मंत्र) जो हमारे द्वारा मिली है उसका पालन करो। यदि वह मिथ्या निकले तो उसकी जिम्मेवारी हमारी है। किसी भी वस्तुका आग्रह करने योग्य नहीं है। दृष्टिरागके कारण हमने भी कृपालुदेवसे कहा था कि चित्रपट नहीं तो कागज पर मात्र हाथ-पाँवकी रेखा जैसा बनाकर दे देंगे तो भी मुझे चलेगा। कुछ भक्तिका साधन और आज्ञा मिले तो बस । आग्रह करनेसे प्रतिबंध होता है। चाहे जो हो जाय तो भी यह वस्तु मुझे मिलनी चाहिये, ऐसा कहनेसे प्रतिबंध होता है। हमें कृपालुदेव वैसी वस्तु देते नहीं थे। मुमुक्षु-यह अंगूठी मैं आपके चरणोंमें रखता हूँ। इसका आप जो उपयोग करना चाहें, करें। प्रभुश्री-आपको लोभ छोड़नेकी इच्छा हो तो यहाँ अनेक खाते हैं। ज्ञान खाता है, साधारण आश्रम खाता है, साधु-समाधि खाता है । जिस खातेमें देनेकी आपकी इच्छा हो उस खातेमें देवें! हमें इसका क्या करना है? मुमुक्षु-प्रभु! मुझे इसका पता नहीं है। आपको जैसा अच्छा लगे उसमें आप इसका उपयोग करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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