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________________ उपदेशसंग्रह - २ २९३ मुनि मोहन० - इंद्रियविषयोंसे उपरत होकर सत्शास्त्रका अभ्यास किया जाय तो वह फलदायक सिद्ध होता है । इस भावार्थका पत्र पढ़ा गया था । प्रभुश्री- यहाँ भी यही चिल्ला रहे थे । इंद्रियोंको जीतनेकी बात ही बार बार कही गई । पंच परावर्तनमें ज्ञानी भगवान हमारे समक्ष क्या समझाना चाहते हैं, इसका आपने क्या विचार किया है ? मुनि मोहन०० - आज इतना विचार किया गया कि इस जीवने अनंत अनंत बार भवभ्रमण किया, इसका एकमात्र कारण जिन भगवान द्वारा प्रतिबोधित तत्त्वों पर सम्यक् श्रद्धा न होना है - यही समझानेका हेतु प्रतीत होता है । प्रभुश्री - ठीक है, सबसे अमूल्य वस्तु समकित है । उसका क्या वर्णन हो सकता है ! उसकी खूबी ही कुछ और है ! यह महा दुर्लभ है। वह प्राप्त होने पर मोक्ष अवश्य होता है और भ्रमणका अंत आता है । निष्पुण्यककी बात याद रखने जैसी है। उसने अंतरदया और सद्बुद्धिको अपना ठीकरा धोकर साफ कर देनेकी विनती की कि दुर्गंधयुक्त सब अन्न निकालकर साफ कर दीजिये, फिर परमान्न दीजिये। पात्रताके बिना किसमें भरेगा? इस ठीकरेको देख न ! सिंहनीका दूध मिट्टी ठीकरेमें लिया जाता होगा ? तुरत टूट जायेगा । शक्ति हो उतना ही ले सकता है, उससे विशेष बोझ आ जाने पर टूट जाता है । पहले पात्रता लानेकी आवश्यकता है, योग्य बननेकी आवश्यकता है । तुम्हारी देसे ही देर है । इसमें सिफारिश कहाँ चलती है ? "एगं जाणइ से सव्वं सव्वं जाणइ से एगं जाणइ, " जाणइ .' यही, एक आत्माको जाननेकी आवश्यकता है, उसको जान लेनेसे सब जान जायेंगे । ⭑ ['गोमट्टसार' में द्रव्यके छः अधिकारका वर्णन है । उसमें नाम अधिकारके बाद उपलक्षण अधिकारमेंसे 'परमाणु रूपी है, अविभागी है, निरंश है, फिर भी उसका आकार षट्कोण गोल है' इस संबंधी वाचन ] १. मुमुक्षु-जो अविभागी या निरंश हो वह षट्कोणवाला कैसे हो सकता है ? षट्कोण होनेसे छह अंश क्यों नहीं माने जाते ? २. मुमुक्षु - द्रव्यार्थिक नयसे वह निरंश कहा जाता है और पर्यायार्थिक नयसे षट्कोणी, षट्अंशी भी कहा जा सकता है । फिर भी वे षट्कोण सदैव रहते हैं, किसी भी समय वह उससे कम कोणवाला नहीं होता । और उससे छोटी अन्य कोई वस्तु विश्वमें नहीं है कि जिसकी उपमासे उसके भागोंका नाप या अनुमान हो सके । प्रभुश्री-ये षट्कोण कहाँ और किस आधार पर रहे हुए हैं ? [ कोई उत्तर नहीं दे सका। अंदर कुछ कारण बताया नहीं है और अन्य कुछ बैठता नहीं है ऐसा सबने कहा ] ३. मुमुक्षु - छह ओर छह कौने (कोण) हो सकते हैं। चार दिशामें चार, एक ऊपर और एक नीचे; घनकी छह दिशाओंकी भाँति कौने (सिंघाडे जैसे ) हो सकते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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