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________________ २९२ उपदेशामृत ['मूलाचार मेंसे स्वाध्यायके पाँच भेदके वाचन प्रसंग पर] प्रभुश्री-इसमें परावर्तनके संबंधमें आया वैसा करना होगा या और कुछ? मुनि मोहन०-यह भी सच है और दूसरा भी सच है। प्रभुश्री-दूसरा क्या? मुनि मोहन-किसी सत्पुरुषने व्यक्तिगत आज्ञा दी हो वह भी सच है। प्रभुश्री-वे कुछ अन्य कहते होंगे? यदि उन्हें मूल वस्तुके सिवाय अन्य कहना हो तो वह भी हमें मान्य नहीं है। उठ, चाहे जितने ज्ञानी हों पर उन्हें कुछ अन्य-अन्य कहता होता है या मूल एक ही होता है? __ पर इसका भी विचार करेंगे या नहीं? परावर्तन अर्थात् पहले पढ़े हुए पाठको फिरसे पढ़ना, पुनः आवृत्ति करना यह आवश्यक है या नहीं? अन्य वाचन आवश्यक है या नहीं? मुनि मोहन०-उसके लिये मैं कहाँ मना करता हूँ? पर व्याख्यान देने जाने पर बंधन होता है या नहीं? प्रभुश्री-यदि उपदेश देने जाते हैं तो तो बंधन ही है। किन्तु स्वाध्यायके लिये स्वयंको जो याद हो उसका पाठ करनेसे वह ताजा होता है, भला नहीं जाता और उसमें समय व्यतीत होता है। बाकी तो ध्यान तरंगरूप हो जाता है यह याद है न? आपने कहा वह भी न्याय है। किन्तु अल्पत्व, लघुत्व और परम दीनता कब आयेगी? अभी तो एक्का घोटना पड़ेगा। स्वयं जानता है उसे संभालकर छिपाकर रखे उसका, या याद हो उसे सरलतासे बोल जाय उसका, या जो याद हो या स्मृतिमें हो उसका-एकका भी गर्व करने जैसा कहाँ है? इसका क्या महत्त्व है? किन्तु हमारे स्वाध्यायमें यदि कोई सुन ले तो कुछ हानि है क्या? भले ही सभी शीघ्रातिशीघ्र मोक्ष जायें। कोई अधिकारी जीव हो उसका कल्याण हो जाये। कुछ गर्व करने जैसा नहीं है। कोई कोई तो निकटभवी यों कानमें बात पड़ते ही श्रद्धा कर मोक्ष चला जाता है और किसीको बार बार सुनने पर भी परिभ्रमण करना पड़ता है। 'हुं तो दोष अनंतनुं, भाजन छु करुणाळ ।' इसमें क्या आया? मैं बोल बोल करता हूँ पर मेरी भूल होगी उसे मुझे निकालनी पड़ेगी और तभी छुटकारा होगा। जो तुम्हारी भूल होगी उसे तुम्हें निकालनी पड़ेगी और जो इसकी भूल होगी उसे इसको निकालनी पड़ेगी। ता. २५-१-१९२६ ['मूलाचार में से 'अजीव दया' के वाचन प्रसंग पर] यहाँ अठ्ठाइस प्रकारसे इंद्रियसंयम और चौदह प्रकारसे जीवदया तथा अजीवदया कही है उसमें सूखे तृण, लकड़ियाँ आदि चाहे जैसे तोड़ने नहीं चाहिये, फैंकने नहीं चाहिये, पर उपयोग रखना चाहिये। ता. २६-१-१९२६ ['मूलाचार में से इंद्रियसंयम और कषाय रोकने संबंधी वाचन] प्रभुश्री-(मुनि मोहनलालजीसे) नीचे सभामें आज क्या वाचन हुआ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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