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________________ उपदेशसंग्रह - २ २८९ 1 जानेसे ऐसा होता है । किन्तु किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता । वहाँसे मनुष्यभव प्राप्तकर उसी भवमें मोक्ष जाते हैं। प्रकृतिके कैसे कैसे नियम हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता ! अतः प्रयत्नशील हो जाना चाहिये । पुरुषार्थ करने लग जाय तो सब हो जाता है। बाकी इधर-उधर देखने जायेंगे तो अंत आनेवाला नहीं है । * स्वधर्मी भाईका एक टुकड़ा भी नहीं खाना चाहिये । कृपालुदेवके समयमें कैसा व्यवहार होता था ? "संसारीका टुकड़ा, गज गज जैसे दाँत; भजन करे तो तो पचे, नहि तो काढे आँत. " जब साधुको भी ऐसा है, तब अन्यको तो कितना बंधन होता होगा ? मुनि मोहन० - अंबालालभाईके मित्र छोटालालभाईके घरकी नींव खोदते समय प्रतिमा निकली थी इसलिये वह भूमि न्यातिवालोंने माँगी । वह भूमि मंदिरके लिये देनेका उसका विचार था, किन्तु उन्होंने माँगी, आग्रह किया इसलिये वह भी अड़ गया और पूरी न्यातिका सामना करके भी जीता । ऐसा खटपटी होने पर भी उसकी मृत्यु सुधरी थी । प्रभुश्री - चाहे जैसा दिखायी दे, पर उसका अंतःकरण सरल था, हँसमुख और उदार था । एक बार मेरे पास आकर सरलतासे बोला- “प्रभु ! अंबालाल कहते हैं वह मेरे माननेमें नहीं आता, पर आप जैसा है वैसा कहेंगे तो मैं मानूँगा ।" हमें तो अन्य क्या कहना था ? हमने कहा - "वे सत्य कहते हैं, अब पुरुषार्थ करने लग जाओ ।" तब वह उद्यमशील बन गया । अंबालाल चाहे जितने क्षयोपशमवाले थे, पर उनकी अपेक्षा इसकी सरलता कम न थी, इसके कारण सबकी देवगति हुई । उसकी मृत्यु सुधारनेमें अंबालाल आदिका मरण भी सुधरा । ⭑ हमें कृपालुदेवने जो पत्र लिखे हैं उनमें सभी आगमोंका सार हँस-हँसकर भरा है और लिखा है - " अब यों क्यों करते हो ? थोड़ी शांति रखो न अब ।” यों सावधान किया है । 'हुं तो दोष अनंतनुं, भाजन छु करुणाळ !" और "वृत्तिको रोको' ऐसे ऐसे वाक्य जो मोक्षमें ले जाये वैसे हैं । अपने दोष देखें, पश्चात्ताप करें । गोशालकने बहुत पाप किये थे, मुनिकी हत्या, तीर्थंकरकी निंदा आदि- फिर भी अंतमें पश्चात्ताप करनेसे उसे उच्च देवगति प्राप्त हुई थी । परिणाम शुद्ध करनेकी आवश्यकता है । ता. २१-१-१९२६ सब शास्त्रोंका सार और मोक्षप्राप्तिका मार्ग या समकितका कारण विनय है । विनयसे पात्रता, योग्यता आती है । धर्मका मूल विनय है । सेवाकी भावना रखें । लघुता रखें, गुरुसे न अति दूर और न अति निकट बैठें, नीचे आसन पर बैठें, आज्ञाके बिना शरीरको भी छूना न चाहिये। ये सब विनयके मार्ग हैं। प्रायश्चित्त द्वारा दोषोंकी शुद्धि करनी चाहिये । ऋद्धिगारव, रसगारव और सातागारवका त्याग करें । Jain Educationtional For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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