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________________ उपदेशामृत २९० [एक गिरगिटका बच्चा दरवाजेके कपाटसे कुचल गया था, उसे एक भाईने पूँछ पकड़कर फेंक दिया, उस प्रसंग पर] प्रत्येक प्राणी पर दया रखें। उसकी मृत्यु इस प्रकारके कर्मबंधके कारण हुई होगी। उसके पीछे कोई रोनेवाला, विलाप करनेवाला है? उसकी सेवा करनेवाला कोई है? इसके साथ हमने भी कितने भव किये होंगे उसका कुछ पता है? अनंत बार उसके साथ माता-पिता, सगे-संबंधीके रिश्ते हुए होंगे! किसीके भी प्राण दुःखित हों वैसा वर्तन नहीं करना चाहिये। उपयोगपूर्वक यत्नासे काम करना चाहिये। ता. २२-१-१९२६ ['मूलाचार मेंसे 'उदीरणा के वाचन प्रसंग पर 'अपक्क पाचनरूप उदीरणा'-आम डाल पर पककर गिरता है तब खाया जाता है। कोई कच्चे आमको तोड़कर, डाल पर पकानेकी अपेक्षा घास पत्ते डालकर जल्दी पका लेते हैं। हम कोई वस्तु कच्ची खाते हैं? शाक भी लाकर, काटकर,पकाकर खाते हैं। इसी तरह कर्मके लिये भी तप एक प्रकारका ताप है। मक्के, गेहूँकी बालियाँ आदि पकाकर खाते हैं, वैसे ही जो कर्म सत्तामें हैं और अमुक समय बाद उदयमें आनेवाले हैं उन्हें तप द्वारा पका लेते हैं। ____ चोरी की हो, पाप किये हों इस भवमें, वे तो हमें याद रहते हैं, उसका विचारकर पश्चात्ताप करते हैं कि अरे! मैंने क्रोध करके, मान करके, माया करके, लोभ करके, आरंभ-परिग्रहका सेवन करके, हिंसा करके बहुत पाप उपार्जित किये हैं। ऐसे अनिष्ट दुःखके कारणोंका अब सेवन नहीं करना है, ऐसा निश्चय करे और उदरपोषणके लिये जो पाप किये हों उनके पश्चात्तापमें उपवास करें, ऊनोदरी करें, रसत्याग करें या ऐसे तपकी आराधना करे, तो उस पापका जो फल आनेवाला था वह यदि निकाचित न हो तो निर्जरित हो जाता है और उदयमें आ जाय तो भी कम रस देता है। परिणाम मंद होनेसे नया बंध भी अल्प होता है। स्वाध्यायके पाँच भेद-(१) वांचना-पढ़ना, वाचन, (२) पृच्छना-दूसरेको पूछना, शास्त्रमें जो पूछने योग्य हो उसका विनयपूर्वक प्रश्न करना, (३) परावर्तन-वाचन किये हुएकी पुनरावृत्ति करना, (४) धर्मकथा-पढ़े हुए, सोचे हुएको कहकर बताना। (५) अनुप्रेक्षा-वारंवार भावना करना। ता. २३-१-१९२६ मुमुक्षु-प्रभु! जीवका कल्याण कैसे हो? जीवका स्वरूप क्या और ईश्वरका स्वरूप क्या है? प्रभुश्री-इस संबंधमें आपको कुछ कहनेका विचार था, पर आपने कुछ पूछा नहीं था तब तक इस विषय पर चर्चा नहीं हुई। जीवका शिव होता है यह तो प्रभु! सुना है न? बहुत बोधसे समझमें आने जैसी यह बात है; पर यदि अन्य परिश्रम किया हुआ व्यर्थ नहीं जाता तो किसी आत्मप्राप्त पुरुषके आश्रयसे किया गया पुरुषार्थ कैसे निष्फल होगा? आपने बहुत अच्छा प्रश्न किया है, यह कल्याणका कारण है। प्रभु! इसकी ही गवेषणा करनी चाहिये । यह सब तो जलके बुदबुदकी भाँति फुस करके फूट जायेगा; पर जो सदैव रहनेवाला है उस स्वरूपको समझनेकी जरूरत है। आप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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