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________________ ૨૮૨ उपदेशामृत रखकर पानी भरा जा सकता है क्या? कल एक भाई बात करते थे कि पश्चिमके देशोंमें रागद्वेष मिटनेके चिह्न दीखते हैं, पर ज्ञानीने देखा वही सत्य है। यही श्रद्धा करने योग्य है। ये भाई तो मनमें ऐसा मानते हैं कि मेरी समझ ही ठीक है। पर देख, क्या निकला! पुण्ययोगसे सब मिल जाता है, पर समझकी बात ही अलग है! वह उदार है इसको कौन मना करता है? और कुछ वैसे संयोगसे ही यह जो है वह दिखायी देता है। मुनि मोहन०-जो मिथ्यात्वमें हो वह उदारता दिखाये या चाहे जैसी प्रवृत्ति करे तो भी कर्म बढ़ाता रहता है और समकिती जीवको निर्जरा होती जाती है। उलटा अधिक क्षयोपशमवालेके पास अधिक कचरा होता है। गिनती तो समकितकी है। मुमुक्षु-प्रभु, किसी जीवको छोड़ना हो, पर छोड़ा न जाता हो, समझमें ही न आता हो कि कैसे छोड़े, उसका क्या करें? प्रभुश्री-कुछ यही बाकी है। छोड़नेका ऐसा कहाँ दिखायी देता है कि, बढ़े हुए नाखूनको काट देनेकी भाँति दूर किया जाये? पर जो ज्ञानीकी दृष्टिसे सच्चा नहीं है, उसे सच्चा न मानें। फिर भले ही सब पड़ा रहे । वह तो उसका समय आने पर ही जायेगा। पर कोई बीस वर्षका पुत्र मर जाये तो ऐसा नहीं होना चाहिये कि हाय! हाय! लड़का चल बसा। किन्तु पहलेसे निश्चित करके रखना चाहिये कि 'मृत्यु तो है ही, और यह सब तो झूठी माया है, स्वप्नके समान है। जीये तो भी क्या और मर जाये तो भी क्या?' कोई गाली दे तो, एकको तो उल्टा ऐसा लगता है कि 'मेरा पाप धुल रहा है, कर्म नष्ट हो रहा है' और दूसरेको ऐसा लगता है कि 'मुझे गाली दी'; किन्तु समझ सच्ची होकर बुरा न लगे तब समझना चाहिये कि इसे ज्ञानीके कथनानुसार सच्ची श्रद्धा है। नहीं तो 'मुझे श्रद्धा है' ऐसा कहनेसे क्या होता है? भेदज्ञान होना चाहिये । काम करते हुए भी ऐसा लगे कि यह सत्य नहीं है, राखकी पुड़ियाके समान है। यदि कोई कह दे कि तुम कल मर जाओगे तो उसका मन किसी भी अन्य काममें लगेगा? मन पीछे हटेगा, उदास रहेगा। इसी प्रकार मृत्युको याद रखनेसे योग्यता आती है। ममता घटे वैसा करें। ठौर ठौर मर जाने जैसा है। महाभाग्यसे ज्ञानीपुरुषका आश्रय प्राप्त होता है। हमें कृपालुदेवका आश्रय प्राप्त हुआ है, वह किसी-न-किसी पूर्वकर्मके संयोगसे प्राप्त हुआ है न? यदि ऐसी सच्ची दृष्टि हुई हो तो फिर एक कुटुंब जैसा लगता है। कुटुंबमें जैसे एक ज्यादा कमाये और दूसरा कम कमाये तो भी सब कुटुंबी माने जाते हैं, वैसा प्रतीत होता है। मृत्युके समय शोक या खेद नहीं होना चाहिये। जैसे पशुको नये घर या नये स्थान पर बाँधे तो उसे भी वहाँ अच्छा नहीं लगता, वैसे ही इस जीवको देहसे निकलना अच्छा नहीं लगता। जीवका देहके साथ वस्त्र जैसा संबंध है, इसे तो ज्ञानीने जाना है। ___मुनि मोहन०-किसी मनुष्यने धन गाड़कर रखा हो उसे चोर निकाल कर ले जाय और जमीनको वापस बराबर कर दे, तो जब तक चोरीका पता नहीं लगता तब तक खेद नहीं होता; किन्तु पता लगने पर खेद होता है। इसी प्रकार क्षण-क्षण मृत्यु हो रही है, उसका पता नहीं है; किन्तु मृत्युके समय देह छूटनेके समय खेद होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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