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________________ उपदेशसंग्रह-२ २८३ प्रभुश्री-यदि उसका हो तो छूटे कैसे? जो पराया होता है वही छूटता है। मृत्युको याद करनेवालोंमें कुछ ऐसे भी स्याद्वादी होते हैं जो सोचते हैं कि मरण होगा तो इकट्ठा किया हुआ बच्चे खायेंगे, किन्तु वैराग्यको प्राप्त नहीं होते। आत्मा कब किसीका पुत्र हुआ है ? किन्तु व्यवहारमें जैसा होता है वैसा कहा जाता है। राखकी पुड़ियाके समान व्यवहार बना लेना चाहिये। क्योंकि यह सब मिथ्या सिद्ध हो चुका है, इसमें कुछ सार नहीं है। वह कहाँ आत्माका गुण है? आत्मा ही सत्य है। ता. ११-१-२६ ['मूलाचार के वाचनके समय] शंका- तत्त्वकी समझ समकितका कारण है और उसमें शंका करना समकितका घात है। ऐसा नहीं करना चाहिये। कांक्षा- तीन प्रकार है-(१) इस लोककी संपत्तिकी इच्छा (२) परलोककी संपत्तिकी इच्छा और (३) कुल धर्मकी (लौकिक धर्मकी) इच्छा। (१) 'इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा' हो तो समकित ही नहीं है। पूरी रात इस पर विचार करें-खानेकी इच्छा, पहननेकी इच्छा, नींद लेनेकी इच्छा, सुखकी इच्छा, धन पुत्र आदिके संबंधमें विचार करें तो भूल समझमें आती है। (२) परलोककी-देवताके सुखकी, वैभवकी इच्छा और (३) लौकिक धर्म-माता-पिता-पुत्रका धर्म, कर्तव्य, और कहे जानेवाले धर्म-ये कोई आत्माके धर्म हैं ? सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही आत्माका धर्म है। अहा! इस पुरुषका उपकार! एक 'इस लोककी अल्प भी सुखेच्छा' में कितना अर्थ समझा दिया है ? उसके एक शब्दका भी विचार कहाँ हुआ है? विचिकित्सा-यह तीसरा दोष है। इसमें मुनिराजके मलमूत्रादिमें ग्लानि नहीं करनी चाहिये, प्रत्युत विनय बड़ा गुण है। यह धर्मप्राप्तिका कारण है। हम तो मात्र दो शब्द कानमें पड़े इसलिये कठिनतासे सभामें आते हैं, और आवश्यकता होती है तो बोलते हैं, पर अब हमारे भाषाके पुद्गल जैसे होने चाहिये वैसे व्यवस्थित हैं क्या? खींचतानकर मुश्केलीसे कुछ बोलते हैं, उसमें भी अरुचि रहती है। हमें तो अब इसीमें समय बिताना है। कृपालुदेवने बताया है तदनुसार जिनकी उनपर दृष्टि हो उन्हें अब हमारी सँभाल लेनी चाहिये-लड़के जैसे बूढ़ेको बुढ़ापेमें सँभालते हैं वैसे करना चाहिये । हमसे अब कुछ बोला जाता है ? नहीं तो कुछ साहस भी करें। पर पहलेसे हमारी तो भावना ही ऐसी है कि कुछ सुनें । कोई सुनाये तो सुनते ही रहें ऐसा मन था और अब भी ऐसा ही है। समय तो बीत ही रहा है न? अब और क्या करना है? ___ एक ब्राह्मण था। वह पढ़ने गया। पढ़कर दूसरे ब्राह्मणोंके साथ जंगलमें होकर वापस घर आ रहा था। रास्तेमें एक बाघ दिखाई दिया। अन्य सब तो भाग गये, पर वह ब्राह्मण पशुकी भाषा भी बोलना जानता था। उसने बाघको उसकी भाषामें धर्मका उपदेश दिया और कथा कही, जिससे बाघ प्रसन्न हुआ। अतः उसने मरे हुए मनुष्योंके शरीर परके गहने, धन, माल आदि जहाँ गुफाके पास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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