SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८१ उपदेशसंग्रह-२ प्रभुश्री लक्ष्य क्या? 'लक्ष्य, लक्ष्य' अर्थात् घिस डालना। वहीका वही, वहीका वही-निरंतर लक्ष्यमें रखना। अन्य कुछ अच्छा न लगे। इस पाठमें लिखे दोष जब तक रहेंगे, तब तक मन कैसे वश होगा? 'मन, उसके कारण, यह सब और उसका निर्णय'-पत्रांक ३७३ में यही बात है। पत्रांक ४३० में लिखे हुए प्रतिबंध प्रत्येक व्यक्तिके लिये विचारणीय है। "असंगता अर्थात् आत्मार्थके सिवायके संगप्रसंगमें नहीं पड़ना, संसारके संगीके संगमें बातचीतादिका प्रसंग शिष्यादि बनानेके कारणसे नहीं रखना, शिष्यादि बनानेके लिये गृहवासी वेषवालोंको साथमें नहीं घमाना । 'दीक्षा ले तो तेरा कल्याण होगा', ऐसे वाक्य तीर्थंकरदेव का नहीं थे। उसका एक हेतु यह भी था कि ऐसा कहना यह भी उसके अभिप्रायके उत्पन्न होनेसे पहले उसे दीक्षा देना है; वह कल्याण नहीं है। जिसमें तीर्थंकरदेवने ऐसे विचारसे प्रवृत्ति की है, उसमें हम छः छः मास दीक्षा लेनेका उपदेश जारी रखकर उसे शिष्य बनाते हैं, वह मात्र शिष्यार्थ है, आत्मार्थ नहीं है। पुस्तक, यदि सब प्रकारके अपने ममत्वभावसे रहित होकर ज्ञानकी आराधना करनेके लिये रखी जाय तो ही आत्मार्थ है, नहीं तो महान प्रतिबंध है, यह भी विचारणीय है। यह क्षेत्र अपना है, और उस क्षेत्रको रक्षाके लिये वहाँ चातुर्मास करनेके लिये जो विचार किया जाता है, वह क्षेत्रप्रतिबंध है। तीर्थंकरदेव तो ऐसा कहते हैं कि द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे-इन चारों प्रतिबंधसे यदि आत्मार्थ होता हो अथवा निग्रंथ हुआ जाता हो तो वह तीर्थंकरदेवके मार्गमें नहीं है, परंतु संसारके मार्ग में है।" यह कथन कोई पढ़े तो कैसा परिणाम आये? किसी भी साधुको अपने दोष जाननेका यह साधन है। ['गोमट्टसार मेंसे ज्ञानमार्गणाका वाचन] मिथ्यात्व जानेपर श्रद्धा होती है। किन्तु श्रद्धा आनेके पहले क्या करना चाहिये? मनोनिग्रहके पाठमें जो लिखा है वह योग्यता देनेवाला है। 'एक मत आपडी के ऊभे मार्गे तापडी'-यह तो श्रद्धा आनेके बाद होता है। पर उससे पहले योग्यता लाने और उसे टिकाकर रखनेके लिये परिश्रम करना पड़ता है। औषध देनेके पहले जुलाब दिया जाता है और बादमें पथ्यका पालन करना होता है। ऐसी योग्यता या दशा लानेकी बात है। यदि अपनेमें गुण प्रकट हुआ है ऐसा देखने लगे तो, जैसे बालकको खजूर अपथ्य हो और वह उसे खा जाय तो उसे फिर जुलाब देना पड़ता है, सब औषध बेकार जाती है, वैसे ही सीधा न रहे, इधर-उधर हाथ-पाँव पटके, तब उसे माँ-बाप कहते हैं कि अब तो चुपचाप बैठ जा। इसी प्रकार धर्ममें भी कंगाल, रंककी तरह दीन होकर पड़े रहने जैसा है। उपदेश देने या सयानापन बतानेकी आवश्यकता नहीं है। पर एक सत्पुरुषने मान्य किया है, उन्होंने देखा है, वही सच है यह ध्यानमें रखना चाहिये, इसे भूलना नहीं चाहिये । यदि स्वयंको देखे तो वहाँ क्या मिलेगा ? अंधेरा, तर्क-वितर्कका जाल । जब तक इतनी योग्यता प्राप्त न हो तथा वैसी दशा प्राप्त न हो, तब तक वहाँ क्या देख पायेंगे? थोड़ा बड़ा हो, योग्य वय हो, तब समझमें आता है। अब क्या किया जाय? 'शक्कर ऐसी होती है' ऐसा कहनेसे उसकी मिठासका पता नहीं लग सकता, पर एकने चखी हो वैसे ही दूसरा भी चखे तो उसे पता लग सकता है। परीक्षाप्रधानत्व वयसे, योग्यतासे आता है। तब तक वह परीक्षा कैसे करेगा? किस नापसे नापेगा? घड़ा उलटा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy