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________________ उपदेशसंग्रह-२ २६७ __पंडितके यहाँ जो भी लोग आते वे नित्य अपने जूते द्वार पर खोलकर ऊपर जाते। बूढा बाप बच्चेके पालनेके पास बैठे-बैठे जूते ही देखा करता और बकता रहता कि इसके जूतेमें एकहरा तलिया है, इसको सीनेवाला कुम्हार जैसा है, इसकी अपेक्षा उस जूतेकी सिलाई अच्छी है। इतनेमें एक व्यक्तिने पंडितकी पत्नीसे पूछ लिया कि यह कौन है? तब उसने कहा कि हमने इसे बच्चेको झुलानेको रखा है । सुनकर बूढ़ा बोल पड़ा कि मैं तो तुम्हारी सासका पति हूँ। इससे वह समझ गयी कि यह कुछ षड्यंत्र जैसा ही लग रहा है। अतः वह तो तुरंत बच्चेको लेकर अपने पिताके घर चली गयी और पितासे कहा कि, "बिना जाँच किये ही मोचीके साथ मेरा ब्याह कर दिया।" यों कहकर रोने लगी। जब पंडितको इस बातका पता लगा तो वह शहर छोड़कर जानेकी तैयारी करने लगा। अपना सामान आदि बाँधकर तैयारी कर रहा था तभी राजपुरोहित अपनी कन्याको लेकर पहुँच गया और पूछा कि कहाँ जानेकी तैयारी कर रहे हो? पंडितने कहा कि मुझे इस शहरमें नहीं रहना है। राजपुरोहित तो इसका कारण जानता ही था, इसलिये उसने कहा, "मैं भी तुम्हारे साथ आता हूँ, क्योंकि तुम्हारी बातका पता लगने पर मेरी बातका भी पता लग सकता है । मैं भी तुम्हारी ही तरह तेली-तंबोली था और यहाँ आकर राजपुरोहित बना । हम राजासे मिलकर कहेंगे कि हमें गाँव जाना है और अन्य देशमें जाकर रहेंगे। दोनों राजाके पास गये। राजा चतुर था। उसने पूछा कि आप दोनों विद्वान मेरे राज्यदरबारमेंसे क्यों जा रहे हो? मुझे इसका कारण जानना है। पहले तो उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। तब राजाने कहा कि तुमने कैसा भी अपराध किया होगा तो भी मैं माफ कर दूंगा। तब साहस बटोरकर उन्होंने बताया कि हममेंसे एक तेली और दूसरा मोची था। पर अब यह बात प्रकट होनेका भय है। इसलिये यहाँसे चले जानेका निर्णय लिया है। इस पर राजाने भी अपनी बात प्रकट की और दर्पण दिखाकर कहा कि मैं भी पहले नाई था और इस प्रकार दर्पण दिखाया करता था, इसलिये डरें नहीं। यों ले-भागनेवालोंसे मार्ग नहीं चल सकता। सच पर बात आ गयी है इसलिये अब तो जो है वह स्पष्ट कह देना है। जिसे मानना हो वह माने और न माने तो वह उसका अधिकार है। हमें तो अब मुक्त होना ही है। पूजा, फूल और सेवा यह सब हमने होने दिया, यह हमारी भूल है। इस समस्त संघके सामने हम कहे देते हैं कि छोटी उम्रमें हमने संयम लिया था, तब क्या ऐसे ही थे? भूलें भी हुई होंगी। पर अब तो सच पर ही जाना है। हमें आश्रमका भी क्या प्रतिबंध है? इस आश्रममें अब हमें सिर नहीं खपाना है। भले ही वहाँ पशु और गधे घूमें। निवृत्तिका समय बितानेके लिये, भक्ति भजन कर लेनेके लिये एक स्थान बनाया था, वहाँ तो क्या-का-क्या हो गया! यात्रामें हम सभी स्थानों पर गये हैं उनमें कई स्थान देख रखे हैं! वृद्धावस्था है इसलिये स्थविरकल्पीके योग्य किसी स्थानकी आवश्यकता है, वह पुण्ययोगसे ऐसा अन्य कोई स्थान मिल जायेगा, पर वहाँ हमारी आज्ञाके बिना कोई न आये और पत्र आदि लिखनेकी भी आवश्यकता नहीं है। गुरुकी शरणसे, जब आश्रममें सुधार होगा, सब बातें ठीक होंगी तब पता चलेगा और उस समय आनेमें भी आपत्ति नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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