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________________ २६८ उपदेशामृत __वहाँ आश्रममें एक दो मुनि रहेंगे और जिसे उत्कंठा हो वह अपना समय वहाँ भक्तिभजनमें व्यतीत करें। पर वहाँ चित्रपट और शुभ स्थान हैं, उनकी विराधना न करें और उज्झडपन न करें। अन्य सब काम बंद रखें। हमें ऐसा लगता है कि आश्रमके ग्रह अभी ठीक नहीं है। अनुकूलतासे धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा सब ठीक हो जायेगा। किसीकी ओर कुछ भी देखने जैसा नहीं है। स्वयं स्वयंका कार्य करके चले जानेका मार्ग है। हमें अपनी भी संभाल करनी चाहिये या नहीं? हम तो अज्ञातरूपमें जड़भरतकी तरह विचरण कर रहे थे। उसमें इसने (रणछोड़भाईने) भंडा फोड़ा (प्रसिद्धि में लायें)। ऐसे समयमें कुछ इसकी सेवाभक्तिके कारण संतके मनको शांति मिली। उसकी दुआसे यह जो कुछ है सो है, पर इस कालमें पचाना कठिन है। किसीके सेवाभक्ति करने पर हमें तो बहुत गुदगुदी होती थी। क्यों भाई, आपको भी ऐसा होता है? रणछोड़भाई-होता है, प्रभु! प्रभुश्री-ज्ञान तो अपूर्व वस्तु है । (परमकृपालुदेवके चित्रपटकी ओर अंगुलिनिर्देश कर) हम तो इनकी शरणमें बैठे हैं। क्यों भाई, आपको ज्ञान हुआ है? हुआ हो तो बताइयेगा। रणछोड़भाई-(सिर हिलाकर) नहीं प्रभु! प्रभुश्री-निष्पक्षपातसे एकमात्र आत्महितके लिए हम एक बात बताना चाहते हैं। इसमें न कोई हमारा स्वार्थ है, न किसीको उल्टे मार्गपर चढ़ाना है और न ही पूजा-सत्कार स्वीकारनेकी बात है। सकल संघकी साक्षीसे हम यह बात कह रहे हैं। जो भरी सभामें संघके समक्ष असत्य या ठगनेके लिए बोलता है उसे शास्त्रमें महापाप कहा गया है। ऐसे जीव भावी जन्ममें गूंगे पैदा होते हैं, उनकी वाणी बंद हो जाती है, मूढ़ भी होते हैं। हम जो कहते हैं उसपर जिसे विश्वास हो वे ही खड़े हो जायें, अन्य भले अपने स्थानपर बैठे रहें। किन्तु जैसा हम कहते हैं, वैसा करना हो वे खड़े होकर कृपालुदेवके चित्रपटके आगे हाथ रखकर कहें कि संतके कहनेसे मुझे कृपालुदेवकी आज्ञा मान्य है। हमारे मनमें तो ऐसा हुआ कि जो वचन हमें आत्महितका कारण हुआ वह वचन दूसरे भी सुनें, श्रद्धा करें तो उनका भी कल्याण हो । अतः उनकी आज्ञा 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' जो हमारे पास आये उन सबको कृपालुकी दृष्टिसे कह सुनायी। परंतु नासमझीसे कोई पोपटलालको, कोई रत्नराजको, कोई इन भाईश्रीको (रणछोड़भाईको) और कोई हमको देहदृष्टिसे पकड़ बैठे। यह विष पी रहे हो, विष! मर जाओगे। यह मार्ग नहीं है। ज्ञानी तो जो है सो है। उसकी दृष्टिसे खड़े रहोगे तो तिरनेका कुछ उपाय है। हमें मानना हो तो मानो, न मानना हो तो न मानो, परंतु जैसा है वैसा कहे देते हैं। हमने तो सोचा था कि अभी जो चलता है वैसा भले चलता रहे, समय आनेपर सब बदल देंगे। क्या हमें पुष्पहार, पूजा-सत्कार ये सब अच्छे लगते होंगे? किंतु कड़वे पूँट जानबूझकर उतार जाते। अब तो छिपाये बिना स्पष्ट कहे देते हैं कि पूजा-भक्ति करने योग्य ये कृपालुदेव हैं। हाँ, भले ही उपकारीका उपकार न भूलें। किसी परिचित मित्रकी भाँति उसकी छबि हो तो आपत्ति नहीं, परंतु पूजा तो इस (कृपालुदेवके) चित्रपटकी ही होनी चाहिए। अच्छा हुआ, अन्यथा कृपालुदेवके साथ इस देहकी मूर्ति भी, मंदिर बनता तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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