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उपदेशसंग्रह-२
२५७ कुछ फर्क नहीं होता। शरीर अच्छा हो तब तो कुछ नहीं, किंतु मृत्युके समयकी व्याधि और पीड़ाके समय ज्ञानी और अज्ञानीकी परीक्षा होती है। जीव बहुत तड़फता है; ऐसा सुंदर पाँच इंद्रियोंवाला शरीर छोड़कर जाना अच्छा नहीं लगता। 'मेरा मेरा' कर जिसमें आसक्त रहा, वही सब उस समय बाधक होता है, पर ज्ञानीको तो उसमें कोई सार ही नहीं लगा, तो उसे छोड़नेमें क्या देर? कृपालुदेवको सूखा रोग था। यह तो आप सबको मालूम है । कुछ लोगोंको मृत्युके समय दस्त लग जाते हैं, कुछकी आँखें फट जाती है; कुछकी साँस सैंधने लगती है, किसीको सन्निपात हो जाता है, परंतु ये सब बाह्य चेष्टाएँ हैं । साँस चलता है तब कैसा लगता है इसका हमें अनुभव है। उस समय तो अन्य कुछ सूझता ही नहीं, पर ज्ञानीको उसमें भी समता रहती है। कृपालुदेवने अपने भाईसे कहा, “मनसुख! माता पिताकी सेवा करना । अब मैं समाधि लेता हूँ।' यों कहकर करवट बदली। यों मृत्युके समय पहलेसे ही समता रखी हो वही उस समय स्थिर रह सकता है। थोड़ी भी माया रखी हो तो उसका कैसा असर होता है ? ___एक महाराज कथा कहते, जिसे सुनकर सब दंग रह जाते। सत्यके संबंधमें बोलना हो तो असत्यकी धूल उड़ा देते । ब्रह्मचर्यके संबंधमें बोलना हो तो बेधड़क गरज उठते । अहिंसामें भी ऐसी सूक्ष्मता और दयाभाव प्रकट करते कि व्याख्यान समाप्त होने पर लोग कहते “धन्य महाराज! आज तो खूब कहा!" किन्तु परिग्रहके संबंधमें बोलने पर नरम पड़ जाते। इससे एक शिष्यने विचार किया कि 'ऐसा क्यों होता है? चलो उनकी गद्दी या झोला देखें ।' जब वे निवृत्त होने जंगल गये तब खुंटीसे उनका झोला उतारकर देखा, पर कुछ मिला नहीं। फिर तकिया देखा तो एक स्वर्णमोहर कपड़ेमें बाँधकर छिपायी हुई मिली। शिष्यको विश्वास हो गया कि यह वस्तु ही उन्हें परिग्रहके संबंधमें बोलने नहीं देती। अतः उस मोहरको निकालकर तकियेको बाँधकर वापस रख दिया और चला गया। फिर महाराज आकर बैठे तो ऐसा लगा कि तकियेको किसीने खोलकर बाँधा है। उन्होंने खोलकर देखा तो मोहर दिखाई नहीं दी। किन्तु ज्ञानी थे इसलिये समझ गये कि अच्छा हुआ, बला टली! चित्त वहाँका वहाँ चिपका रहता था, अब वह झंझट मिटा। दूसरे दिन परिग्रह पर बोलने पर थोड़े भी रुके नहीं और सबको बहुत आनंद आया। फिर सब चले गये, पर मोहर निकालनेवाला शिष्य बैठा रहा। उसने कहा, “महाराज! आज तो परिग्रह पर खूब बोले।" महाराज समझ गये और हँसकर कहा, "तेरा ही काम लगता है! बहुत अच्छा किया।"
ता.२२-९-२२ "गुरु दीवो, गुरु देवता, (गुरु) रविशशी किरण हजार;
जे गुरुवाणी वेगळा, रडवडिया संसार." ___ ज्ञान दीपकके प्रकाशित होने पर अंधकार कहाँ रह सकता है ? जिसके द्वारा देखा जा सके वह देवता-स्वर्गीय कहो तो भी देव है और जिसमें तद्रूप करनेका गुण है वह देवता, अग्नि कहो तो भी ठीक है। गीली सूखी चाहे जैसी लकड़ियाँ, लोहे आदिको भी अग्नि अपने समान बना देती है, वैसे ही गुरु भी आत्मामय बनाते हैं, मोक्ष प्राप्त करवाते हैं। समकित प्रकट होनेके बाद मोक्ष न जाना हो तो भी वह ले ही जाता है। सूर्यकी अनंत किरणोंसे अंधकार नष्ट होता है, वैसे ही सद्गुरुकी
अनंत शक्तिसे सर्व दोष दूर होते हैं। जिसके प्रकाशसे आँखें देख सकती हैं, ऐसे सूर्यके समान Jain Educatio o tional
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