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________________ २५६ उपदेशामृत कैसे दिखाई दे? फिर कृपालुदेवसे पूछा कि मंत्रका जाप तो बहुत किया, पर जैसा आप कहते हैं वैसा दिखाई क्यों नहीं देता? "कुछ नहीं, अभी चालू रखें।" ऐसा उत्तर मिला। इस जड़ जैसे देहमें चेतन दिखाई देता है। पर विश्वास और दृढ़तासे गुरुआज्ञाका पालन करना और देखने आदिकी इच्छा भी नहीं रखनी चाहिये। योगमें तो मात्र श्वास सूक्ष्म होती है। ज्ञानीने आत्माको जाना है, वही मुझे मान्य है, यह श्रद्धा ही काम बना देती है। मुमुक्षु-यहाँ बैठे हैं उनका तो कल्याण होगा न? प्रभुश्री-गोशाला जैसे विषमभावधारीको ज्ञानीपुरुषकी प्रतीति होने पर मोक्ष प्राप्त हुआ तो (सबकी ओर अंगुलि निर्देश कर) इन बेचारे जीवोंने क्या दोष किया है ? पर यह जानना आत्महितकारी नहीं है, क्योंकि अहंकार आ जाता है। सुख दुःख तो ज्ञानी, अज्ञानी दोनोंको कर्मवश भोगना पड़ता है, पर दृष्टि ही बदलनेकी आवश्यकता है। सब सुलटा कर लेना है। 'आप स्वभावमां रे! अबधू सदा मगनमें रहेना।" शांतिपूर्वक निश्चिंततासे 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु'के जापमें समय बिताना चाहिये। उससे निर्जरा होती है। ता.७-९-२२, पर्युषण पर्व त्याग, त्याग और त्याग । 'श्रद्धा, सत्श्रद्धा, शाश्वतश्रद्धा ।' 'सद्धा परम दुल्लहा।' यह महावीर स्वामीका परम विचारणीय वाक्य है। आगामी पर्युषण तक इस पर विचार करें। ता.२१-९-२२ १“हारे प्रभु दुर्जननो भंभेर्यो मारो नाथ जो; ___ओळवशे नहीं क्यारे कीधी चाकरी रे लोल." [स्तवनमें गाया गया] प्रभुश्री-इसका क्या परमार्थ है? १. मुमुक्षु- रीझ्यो साहेब संग न परिहरे रे!' एक बार कृपा हो जाय और फिर कुछ दोष हो जाय तो भी की हुई सेवाको नहीं भूलते। प्रभुश्री-भाईका अर्थ ठीक है। आप बतायेंगे? २. मुमुक्षु-सत्पुरुष की हुई सेवाको नहीं भूलते और किसीका कहा नहीं सुनते। प्रभुश्री-'दुर्जननो भंभेर्यो' इसका अर्थ आपके विचारसे क्या है? ३. मुमुक्षु-काम, क्रोध, मान आदि दुर्जन, उनसे आत्मा घिरा हुआ है। पर सत्पुरुषकी सेवा की हो तो भटकना नहीं पड़ता। प्रभुश्री-सबका अर्थ ठीक है-सभी नय सच्चे हैं। हमें तो सुलटा भाव लेना है, फिर क्या? यह शरीर ही दुर्जन है। कितने ही जन्म बीत गये पर आत्माकी पहचान नहीं हुई। देहके धर्म तो ज्ञानी और अज्ञानी दोनोंको होते हैं, पर अंतरंगकी चर्यासे ही ज्ञानीकी पहचान होती है। बाहरसे १. मेरे नाथ ऐसे हैं कि दुर्जन उनके कान भर दे फिर भी मैंने जो उनकी सेवा की है उसे कभी नहीं भूलेगें|शरीर ही दुर्जन है, वह यदि विपरीत वर्तन भी करे तो भी समकित अचल है तो जीवका अवश्य कल्याण होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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