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________________ उपदेशसंग्रह-२ २५५ यह वाक्य कितना अधिक मूल्यवान है! इसमें सर्व शास्त्रोंका सार समाहित है। उसका वर्णन नहीं हो सकता। उसका अर्थ करने पर समझमें आ गया ऐसा मानता है, पर वह मिथ्या है। यह नहीं, उसे अनुभव करना ही वास्तविक है। सभी अपने अपने क्षयोपशमके अनुसार समझते हैं, पर जिसकी इंद्रियाँ विषयव्यापारको छोड़कर एक ही आत्माकी ओर मुड़ी हैं, उसे उसमें परम अद्भुत रहस्य-चमत्कारी बातें ज्ञात होती हैं। "आप स्वभावमां रे! अबधू सदा मगनमें रहना ।" [भक्तिमें गाया गया पद] 'अबधू' अर्थात् आत्मा। हीरा, माणिक, मोती, पैसा मिले तो यह जीव दौड़ दौड़कर जाता है, पर आत्मा आत्माको संबोधित कर जो पुकार रहा है, उस पर ध्यान नहीं देता। ___“निर्दोष सुख, निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी भले; ए दिव्य शक्तिमान जेथी जंजीरेथी नीकळे.' आत्माका लक्षण जानना, देखना और स्थिर होना है, इसे निरंतर स्मरणमें, अनुभवमें रखना चाहिये। फिर भले ही मृत्युके समान वेदना आ जाय, पर 'जानने देखनेवाला ही मैं हूँ,' अन्य तो जा रहे हैं। मात्र प्रेमसे उन्हें हाथ जोड़कर अतिथिकी भाँति बिदा होते देखना चाहिये। उनमें आत्माको कुछ चिपके ऐसा नहीं है, नहीं कुछ लेना या देना! जो जो उदयमें दिखाई देता है, वह जानेके लिये ही है-आया कि गया । वज्रके ताले लगाकर कहें कि जो आना हो वह आये-मरण आये, असाता आये, सुख आये, दुःख आये, चाहे जो आये, पर वह मेरा धर्म नहीं है। मेरा धर्म तो जानना, देखना और स्थिर होना ही है। अन्य सब तो पुद्गल, पुद्गल और पुद्गल ही है। चक्कर आयें, बेहोश हो जायें, श्वास चढ़े यह सब देहसे अलग होकर बैठे बैठे देखनेमें आनंद आता है। [उस समय प्रभुश्रीको चक्कर, मूर्छा आती थी] जागृत, जागृत और जागृत रहें। हाय! हाय! अब मर जाऊँगा, यह कैसे सहन होगा? ऐसा ऐसा मनमें नहीं आने देना चाहिये । वस्तुको जाननेके बाद उसे कैसे भूला जा सकता है ? मैं देह नहीं हूँ, यह निश्चय हो जाना चाहिये । पूर्वमें ऐसे कई हो गये हैं। जिन्हें घानीमें डालकर पेरा गया, फिर भी उनका चित्त विभावमें नहीं गया। संयोग, संयोग और संयोगोंके सिवाय हमारे आसपास है ही क्या? पहने हुए कपड़े, मनुष्य, सुख दुःख आदि संयोगवश प्राप्त हुए हैं और उनका नाश होता या वे दूर होते दिखाई देते हैं। पर अंतमें कौन किसके साथ आता है? सबसे उदासीन व्यवहार करना चाहिये । पर इस जीवको तो अकड़कर खड़े रहना है! संसार भोगना है और मोक्ष भी प्राप्त करना है, यह तो त्रिकालमें भी संभव नहीं है। मार्ग एक ही है। जब तब उसी मार्गसे मोक्ष प्राप्त होगा। 'मेरा मेरा' करते तो मर जाना है। 'देखनेमें विष है, मृत्यु सिर पर है, पैर रखते पाप है,' पर दीनबंधुकी कृपादृष्टिसे सब कुशलक्षेम है। सदैव 'अधूरा, अधूरा और अधूरा' ऐसी भावना रखें । अहंकार तो मार डालनेवाला है। ___ हमने 'सहजात्मस्वरूप परमगुरु' मंत्रके जापकी रात दिन धुन लगायी पर विकल्प उठता कि 'अभी तक कुछ दीखता क्यों नहीं? आत्मा हो तो कुछ तो दिखाई देना चाहिये?' पर अरूपी आत्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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