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उपदेशसंग्रह-२
ता. २६-६-१९२२ चाहे जैसा प्रतिबंध हो, मरण समान वेदना हो, चाहे जैसे मायाके फंदेमें फँस गये हों, परंतु आत्महितको कभी नहीं भूलना चाहिये!
ये बुजुर्ग संदेसरसे नित्य यहाँ आ सकते हैं, तब पासमें रहनेवालोंको तो यह अमूल्य लाभ शेष जीवनमें जितना ले सकें उतना थोड़ा बहुत ले लेना चाहिये । हाथ जोड़कर कहता हूँ कि यह एकांत नहीं है। स्याद्वादवाणीको कौन समझेगा? समझें या न समझें तो भी हितकारी है। इस अमूल्य अवसर पर आप सबके कर्मके दल सत्पुरुषकी कृपासे क्षीण हो रहे हैं।
जीवको भागते हुए रुक कर, पीछे मुड़कर प्रारब्धानुसार जो जो प्राप्त हुआ हो उससे घबराये बिना संयोगोंमेंसे सार ग्रहण कर लेना योग्य है। एक दुर्गंधित कुत्ता राजमार्गके पास पड़ा था जिसकी दुर्गंधसे सारी सेना घबरा गई, पर श्रीकृष्णने तो हाथीसे उतरकर जाँच की। उसके दाँत
और नाखून कैसे अखंडित हैं! ऐसा कहकर गुण ग्रहण किया। यह तो लौकिक बात है, पर परमार्थसे तो यह शरीर वैसा ही दुर्गंधित है। उसमें नित्य स्थायी रहनेवाला तत्त्व तो आत्मा है, उसके गुण ग्रहण करने योग्य हैं, उसे पहचानना है। सत्पुरुषकी शरण स्वीकार कर अहंकारको छोड़ते जाना और कार्य करते हुए भी ‘सहजात्मस्वरूप'का जाप करते रहना चाहिये। ऐसा करने पर आस्रवसे संवर हो जायेगा। महात्मा पुरुषकी बाह्य चेष्टा पर ध्यान न देकर उनके आत्माकी चेष्टा पर ध्यान देना चाहिये। ज्ञानी और अज्ञानीके कार्योंमें वासनाक्षयका भेद है। आंतरिक वासनाका मूल ज्ञानीने क्षय किया है। इस दृष्टिको भूलना नहीं चाहिये। सभी सत्पुरुषोंको समान मानकर गुरु भावनाको गौण नहीं करना चाहिये, किन्तु उसमें दृढ़ता ही लानी चाहिये । एक ही व्यक्तिके उपदेशसे आत्महित सिद्ध हुआ है, सिद्ध होता है और सिद्ध होगा। ऐसी दृढ़ मान्यता रखनेसे यह भव सफल होगा। संपूर्ण जगतके प्रति शिष्यभाव रखनेसे मूलमें जिस निमित्तके द्वारा शीघ्र आत्महित होता हो और जो जीवन सद्गुरुको अर्पण हो चुका हो, वह निरर्थक भटकनेमें व्यर्थ न चला जाय, यह ध्यान रखने योग्य है।
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ता. २३-७-२२ बहुत भागदौड़ करनेमें धर्म नहीं है और बहुत ढील करनेमें भी नहीं है, मध्यस्थताका मार्ग ग्रहण करना चाहिये।
ता.६-९-२२ यह अवसर चूकना नहीं चाहिये । परम दुर्लभ मनुष्यदेह और ऐसे संयोग मिलने सुलभ नहीं हैं। महान पुण्यके योगसे जो लाभ प्राप्त हुआ है उसे चूकना नहीं चाहिये। शेष मनुष्यभव इस(भक्ति)के लिये ही बिताना योग्य है। जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ।
(आचारांग-४, १२३)
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