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________________ उपदेशसंग्रह - १ २५३ तो परिवर्तन नहीं कहा जा सकता । तथा समकितीको भेद पड़ा है, वह अन्यभावमें तन्मय नहीं होता ऐसा प्रत्यक्ष देखते हैं, ऐसा समझमें आता है, यही कर्त्तव्य है । ज्ञानी हैं । लेने जाना नहीं है । वही बतायेंगे । आप इतने लोग बैठे हैं, संसारमें अन्य अनेक बैठे हैं-कैसे कैसे धनाढ्य, चतुर, पर कहीं कहीं मग्न हो रहे हैं ! क्या उन्हें लेश भी पता है ? और आपको यह बात समझमें आ गयी तो काम हो जायेगा। एक जरा दृष्टि डाली है इससे आपको लाभ होगा । कुछ बात की, भागीदार बनाया तो रिद्धि आती ही रहेगी । वस्तु तो यही है, यही करना है । इसीमें रमण करना है । यही करवाना है। “इसे सुननेसे, इस पर श्रद्धा करनेसे ही छूटनेकी वार्ताका आत्मासे गुंजार होगा ।" अन्य क्या कहे ? बातोंसे बड़े नहीं बनाने हैं। कोई छोटा-बड़ा नहीं हैं । जाने दीजिये । यह सब अहंकार है मरनेके लिये ! यह सब विष है । मर जायेंगे । I “धरम धरम करतो जग सहु फिरे, धर्म न जाणे हो मर्म, जिनेसर; धर्म जिनेसर चरण ग्रह्या पछी, कोई न बांधे हो कर्म, जिनेसर. " इतनेसे अक्षर समझ लें तो फिर कर्म नहीं बाँधेंगे। बात आपको कही कि अमुक वस्तु है, देखो तो तुरत पता लग जाय । सोना तो सोना ही है। शुद्ध स्वरूप ! यही समझना और यही कर्त्तव्य है । करना यही है, अन्य कुछ नहीं । मायामें आसक्त होना नहीं है, प्रसन्न होना नहीं है और मानना भी नहीं है। दिन बीत रहे हैं; पर इसीसे एक न एक दिन काम होगा। इससे अतिरिक्त कुछ नहीं करना है । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only + www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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