SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 353
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशामृत २५८ प्रभावशाली सद्गुरु होते हैं। फिर संसारके तापमें शीतलता प्रदान करनेवाले चंद्रके समान भी सद्गुरु हैं। बात बहुत सूक्ष्म है-क्यों समझमें आ रही है न?-परंतु आत्महितकारी है। ता. २२-९-२२ .. एक बार खंभातमें अंबालालभाईके घरके ऊपरी खंडमें मैंने कृपालुदेवसे कहा, "मैंने दो स्त्रियाँ, दो बच्चे, धन-दौलत आदिको छोड़ा तो क्या मैं त्यागी नहीं? अब मुझे और क्या छोड़ना शेष रहा है?" फिर कृपालुदेवने मुझे आडे हाथों लिया, “मुनि! दो बच्चोंको छोड़कर इतने सारे श्रावकों और संघाडेमें मन पिरोया है! अपनी स्त्रीको छोड़कर अन्य कितनी स्त्रियोंकी ओर दृष्टि करते हो? इसमें तुमने क्या छोड़ा? एक गया और उसके स्थान पर दूसरा आ गया!" तब मुझे लगा कि, “हाय! हाय! ऐसा है? तब तो सच ही मैं मुनि नहीं। मेरे पीछे तो बहुत उपाधि लगी हुई है।" तब कृपालुदेवने कहा, “अब तुम मुनि हो। मैंने छोड़ा है, मैंने त्याग किया है, इस अहंकारको मनसे निकाल दिया है इसलिये तुम मुनि हो।" x7 ता. ३१-५-२३ मानवदेह दुर्लभ है, उसमें भी सत्पुरुषका योग बहुत दुर्लभ है और उसके प्राप्त होने पर भी आयुष्यका योग मिलना भी दुर्लभ है। श्री देवकरणजी और श्री जूठाभाईको सत्पुरुषका योग मिला, पर आयुष्यकी कमी रह गयी। एक सेठको बहुत सी दुकानें हों, उनमेंसे कुछमें लाभ और कुछमें हानि, ऐसे दृष्टांतवाली एक पुस्तकमें धर्मके चार भाग अलग अलग किये गये हैं, फिर उसके दस भाग किये हैं। उसको हमने पहले पढ़ा था और प्रत्येकमें कहाँ-कहाँ हानि है उस पर विचार किया था। सब दुकानोंकी कमी (हानि) दूर हो ऐसी एक दुकान परमकृपालुकी कृपासे समझमें आयी। (मुनि मोहनलालजीसे) वचनामृतमें ऐसा लिखा है कि यदि तू स्वतंत्र हो तो दिनके निम्न भाग कर-भक्तिकर्तव्य, धर्मकर्तव्य आदि । उसमें धर्म और भक्ति दोनों आते हैं, इनमें क्या भिन्नता है? मुनि मोहनलालजी-जो मंत्र मिला है उसका तथा सत्पुरुषकी मुखाकृति आदिका चिंतन, क्षमापना, बीस दोहे आदि जो सत्पुरुषने बताये हैं उन्हें बोलना यह भक्ति है, और स्वरूपका चिंतन धर्म है। प्रभुश्री-हम कृपालुदेवके जीवनकालमें ऐसे ही दिन बिताते थे। दिनमें भिन्न भिन्न ग्रंथ पढ़े हों उनकी रातमें चर्चा करते। पर दिनमें सोनेकी मनाई थी जिससे रातमें सोनेके समयकी प्रतीक्षा करते। 'पुष्पमाला में निद्राके लिये दो प्रहर कहे गये हैं, पर हमें एक प्रहर ही मिलता और प्रातः ४ बजे उठ जाते । प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओंसे निवृत्त होकर कुछ मुनि गोचरीके लिये जाते और हम पढ़ते। पूरा प्रहर न हो सके तो कमसे कम घड़ी दो घड़ी नियमित उसमें बितायें। धर्मका स्वरूप तो अनुभव होगा तब समझमें आयेगा। विषय, कषाय, प्रमाद और स्वच्छंदको दूर करना चाहिये और ये दूर होंगे भी। 'धर्म कहे आत्मस्वभावकूँ ओ सत् मतकी टेक ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy