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[३०] आपको सर्व पच्चक्खान हो तो फिर पत्र न लिखनेका साधुने जो पच्चक्खान दिया है, वह नहीं दिया जा सकता। तथापि दिया हो तो भी इसमें आपत्ति न माने; वह पच्चक्खान भी ज्ञानीपुरुषकी वाणीसे रूपांतर हुआ होता तो हानि न थी; परंतु साधारणरूपसे रूपांतर हुआ है, वह योग्य नहीं हुआ। यहाँ मूल स्वाभाविक पच्चक्खानकी व्याख्या करनेका अवसर नहीं है, लोकपच्चक्खानकी बातका अवसर है; तथापि वह भी साधारणतया अपनी इच्छासे तोड़ना ठीक नहीं; अभी तो ऐसा दृढ़ विचार ही रखे । गुण प्रगट होनेके साधनमें जब रोध होता हो, तब उस पच्चक्खानको ज्ञानीपुरुषकी वाणीसे या मुमुक्षुजीवके सत्संगसे सहज आकारफेर होने देकर रास्तेपर लाये क्योंकि बिना कारण लोगोंमें शंका उत्पन्न होने देनेकी बात योग्य नहीं है......
आपके अंबालालको पत्र लिखनेके विषयमें चर्चा हुई, वह यद्यपि योग्य नहीं हुआ। आपको कुछ प्रायश्चित्त दें तो उसे स्वीकारे परंतु किसी ज्ञानवार्ताको लिखनेके बदले लिखवानेमें आपको कोई रुकावट नहीं करनी चाहिये, ऐसा साथमें यथायोग्य निर्मल अन्तःकरणसे बताना योग्य है कि जो बात मात्र जीवका हित करनेके लिये है..."
इसी अरसेमें श्रीमद्जीने श्री अंबालालको पत्र लिखा है उसमें इसी बातके संबंधमें लिखा है-".....किसी भी प्रकारसे सहन करना ही अच्छा है; ऐसा न करनेपर थोड़े कारणसे बड़ा विपरीत क्लेशरूप परिणाम आ सकता है....कदाचित् वे बिना प्रायश्चित्तके भी इस बातको छोड़ दें तब भी आपको अर्थात् साधु लल्लजीको चित्तमें इस बातका इतना पश्चात्ताप तो करना ही चाहिए कि ऐसा करना भी उचित नहीं था। आगेसे देवकरणजी जैसे साधुके समक्ष वहाँसे अमुक श्रावक लिखनेवाला हो और पत्र लिखावें तो बाधा नहीं है, इतनी व्यवस्था उस संप्रदायमें चलती आ रही है, अतः बहुधा लोग विरोध नहीं करेंगे। और यदि उसमें भी विरोध जैसा कुछ लगता हो तो अभी इस बातके लिए भी धैर्य धारण करना हितकारी है। लोक समुदायमें क्लेश उत्पन्न न हो, यह लक्ष्य चूकने जैसा अभी नहीं है..." ___ सं.१९५१का चातुर्मास श्री लल्लजीने सूरतमें किया तब उनके बड़े साधुने मालवासे पत्र लिखकर सं.१९५२में उन्हें खंभात बुलाया था। श्री लल्लजीने सं.१९५२का चातुर्मास खंभातमें किया था। तब श्रीमद्जी रालज होकर खंभात पधारे थे और सप्ताहभर रुके थे। उस समय मुनि उनके समागममें जाते थे, जिससे लोगोंमें और साधुओंमें चर्चा होती थी तथा बड़े साधु भाणजीरखके कानमें भी यह बात बढ़ा-चढ़ाकर पहुंची थी इससे सं.१९५३ के फाल्गुन मासमें खंभातमें बीस साधु एकत्र हुए थे। इस विषयमें श्री अंबालालभाईने श्रीमद्जीको संक्षेपमें पत्र लिखा था, उसमें वे लिखते हैं
"मुनिश्री भाणजीरखजीके बुलानेसे बीस साधु इकट्ठे हुए हैं। मुनिश्री लल्लजी आदि ठाणा छह आज्ञानुसार प्रवृत्ति कर रहे हैं। वे लोग तो विशेष चेष्टामें, निंदा पर उतर आये हैं । यहाँके सभी मुमुक्षु आज्ञानुसार प्रवृत्ति कर रहे हैं। अब तो वे लोग मर्यादारहित प्ररूपणा और निन्दा करने में लगे हैं। इस विषयमें यदि थोड़ा भी सहज भावसे कहते हैं, कि मुनिका मार्ग कैसा होना चाहिए? तो वह भी उन लोगोंको उल्टा लगता है...अनेक प्रकारसे अन्यायपूर्ण प्ररूपणा करते हैं, तब भी सभी मुनि आदि अभी तो समभावसे रह रहे हैं। कोई कुछ नहीं बोलता। जरासी बात करने जाते हैं तो वे अन्यायपूर्ण ही बोलते हैं, वहाँ इस जीवका क्या सहारा? अब तो हे प्रभु! आपकी शरण ही एक
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