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________________ [३१] आधारभूत है। जो साधु सन्मार्गकी इच्छावाले हैं उनमें से एक-एकको बुलाकर विशेष प्रकारसे दबाते हैं, मार्गसे गिरानेका प्रयत्न करते हैं और लोकसमुदायके सामने विविध प्रकारसे हास्यादिक चेष्टा करते हैं। वे छह मुनि तो समभावसे रह रहे हैं। मुनि देवकरणजीको सच्ची बातमें शूरवीरता आ जाती है, किन्तु मन दबाकर बैठे हुए हैं। अब तो उन लोगोंको विशेष आग्रह हो गया है। यदि पूछे बिना इन साधुओंको एकाएक संघाडासे बहिष्कृत कर दें तब इन छह मुनियोंको कैसा व्यवहार करना चाहिए? कदाचित् संघाडासे बाहर न करें और एक एकको अलग अलग करके अपने साथ रखकर विषम दबाव डालें या मार्गसे गिरानेका प्रयत्न करें तो इन मुनियोंको कैसा व्यवहार करना चाहिए? कुछ प्रारंभिक जिज्ञासावाले मुनियोंको तो यह प्रसंग विशेष दृढ़ताका कारण हुआ है और हो रहा है, फिर भी अब तो डरते हैं कि यह संग बुरा है और इसमें रहना पड़ेगा तो कैसे करेंगे? इस विषयमें स्पष्टीकरण चाहते हैं। पत्रसे विशेष लिखना संभव नहीं हुआ है। किन्तु अद्वेषपरिणामसे ही रहनेका निश्चय किया है। फिर भी अग्निज्वालाके समक्ष रहनेसे उष्णता आये बिना नहीं रहती, तो भी दबादबाकर रख रहे हैं। अब तो आप परमकृपालुदेवकी परम कृपासे जगतका कल्याण होओ। इस संसर्गसे चाहे जितना रोकनेपर भी चित्तमें विक्षेप हो ही जाता है। अब वे मुनियोंको उठने देंगे ऐसा नहीं लगता और हमारे साथ तो वे लोग कोई बात ही नहीं करते...अत्यंत दृढ़ परिणामसे रह सकने योग्य मेरी स्थिति नहीं है इसलिये सत्य बात पर जोश आ जाता है। और, जो सच्ची बात कहते हैं उसे हास्यमें अन्यायपूर्ण ढंगसे उड़ा देते हैं। परंतु फिर वही अनुकंपा आ जाती है।" श्रीमद्जीकी मिलजुलकर एकतासे रहनेकी सूचनाके कारण ऐसे सतानेवाले वातावरणमें भी, बड़े माने जानेवाले साधुके कथनानुसार रहने-जितनी नम्रता और लघुता धारणकर श्री लल्लजी स्वाध्यायादिमें समय व्यतीत करते जिसका प्रभाव सभी साधुओंपर पड़े बिना नहीं रहता। लोगोंको भी उनकी शांत प्राभाविक मुखमुद्रा तथा भक्ति-वैराग्यादि गुणोंसे उनकी महत्ता समझमें आती। और फिर, श्री देवकरणजीके व्याख्यानसे तो निंदक लोग भी प्रायः बदल जाते। सं.१९५४की मगसिर वदी दूजको श्री लल्लजीने श्रीमद्जीको पत्र लिखा उसमें वे लिखते हैं, "हे नाथ! श्री खंभातसे मुनि छगनजीने एक पत्र लिखाया और उसे अंबालालभाईको देकर कहा कि मुनि लल्लुजी आदि मुनियोंको भेज देवें । वे लिखते हैं कि अहमदाबाद क्षेत्रमें नहीं गये जिसका हमें बहुत खेद है...हे प्रभु! विचार करनेपर हमें लगा कि हमें श्री अहमदाबाद क्षेत्रमें जाना ही नहीं है ऐसा तो कुछ है नहीं और फिर स्वपक्षके साधुओंको खेद होता है। वहाँका बहुत आग्रह रहता है, तो हमें सद्गुरुकी शरण लेकर जाना चाहिए ऐसा सोचकर इसका उत्तर आज श्री अहमदाबाद तथा खंभात लिखा है।" इस पत्रके उत्तरमें श्रीमद्जीने लिखा है "...विहार करके अहमदाबाद स्थिति करनेमें मनमें भय, उद्वेग या क्षोभ नहीं है, किन्तु हितबुद्धिसे विचारनेपर हमारी दृष्टिमें यों आता है कि इस समय उस क्षेत्रमें स्थिति करना उचित नहीं है...समागम होनेपर बतायें कि पहलेकी अपेक्षा संयममें मन्दता आयी है ऐसा आपको लगता हो तो सूचित करें, ताकि उससे निवृत्त होनेका संभव हो सके; और यदि आपको वैसा न लगता हो तो फिर कुछ जीव विषमभावके आधीन होकर ऐसा कहते हों तो उस बातको लक्ष्यमें न लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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