SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ २९ ] श्री लल्लुजी दो-ढाई माह तक ईडरके आसपास के प्रदेशमें विचरे । फिर खेरालु होकर नडियाद आये और सं. १९५५ का चातुर्मास वहीं किया । श्री लल्लुजी स्वामीका चातुर्मास मुंबईमें होनेके बाद श्रीमद्जीसे परिचय और पत्रव्यवहार बढ़ गया और सद्गुरुके प्रति प्रेममें हुई वृद्धि छिपायी छिप नहीं सकती थी । श्री यशोविजयजीने सुमतिनाथ प्रभुके स्तवनमें जैसा कहा है वैसा हुआ था - १ " सज्जनशुं जे प्रीतडीजी, छानी ते न रखाय, परिमल कस्तूरी तणोजी, महीमांहे महकाय; सोभागी जिनशुं लाग्यो अविहड रंग. ढांकी इक्षु परालशुंजी, न रहे लही विस्तार, वाचक यश कहे प्रभुतणोजी, तिम मुज प्रेम-प्रकार; सोभागी०" श्री लल्लुजीने सूरत, कठोर होकर सं. १९५२में खंभातमें चातुर्मास किया उससे पहले भी सं.१९५०में खंभात संघाडे (साधुसमुदाय ) में पत्रव्यवहारसंबंधी चर्चा चली थी इसलिये श्रीमद्जीने श्री लल्लुजीको निम्नलिखित आशयका एक पत्र लिखा था "लोकसमागम बढ़े, प्रीति - अप्रीतिके कारण बढ़े, स्त्री आदिके परिचयमें आनेका हेतु हो, संयम ढ़ीला हो, उस उस प्रकारका परिग्रह बिना कारण अंगीकृत हो, ऐसे सान्निपातिक अनंत कारण देखकर पत्रादिका निषेध किया है, तथापि वह भी अपवादसहित है..... किन्हीं ज्ञानीपुरुषका दूर रहता होता हो, उनका समागम होना मुश्किल हो, और पत्र- समाचारके सिवाय दूसरा कोई उपाय न हो, तो फिर आत्महितके सिवायकी दूसरी सर्व प्रकारकी बुद्धिका त्याग करके, वैसे ज्ञानीपुरुषकी आज्ञासे अथवा किसी मुमुक्षु सत्संगीकी सामान्य आज्ञासे वैसा करनेका जिनागमसे निषेध नहीं होता ऐसा प्रतीत होता है । क्योंकि जहाँ पत्र- समाचार लिखनेसे आत्महितका नाश होता हो, वहीं उसका निषेध किया गया है। जहाँ पत्र- समाचार न होनेसे आत्महितका नाश होता हो, वहाँ पत्र- समाचारका निषेध किया हो, यह जिनागमसे कैसे हो सकता है ? यह अब विचारणीय है 1 इस प्रकार विचार करनेसे जिनागममें ज्ञान, दर्शन और संयमके संरक्षणके लिये पत्रसमाचारादिके व्यवहारका भी स्वीकार करनेका समावेश होता है, तथापि वह किसी कालके लिये, किसी महान प्रयोजनके लिये, महात्मा पुरुषोंकी आज्ञासे अथवा केवल जीवके कल्याणके ही कारणमें उसका उपयोग किसी पात्रके लिये है, ऐसा समझना योग्य है । नित्यप्रति और साधारण प्रसंगमें पत्रसमाचारादिका व्यवहार संगत नहीं है, ज्ञानीपुरुषके प्रति उनकी आज्ञासे नित्यप्रति पत्रादि व्यवहार संगत है......... १. अर्थ-सजनके साथ जो प्रीति होती है वह छिपायी छिप नहीं सकती - जैसे कि कस्तूरीकी सुगंध पृथ्वीपर चारों ओर फैल जाती है। जैसे कि विस्तारको प्राप्त हुई इक्षु घाससे ढँकने पर वह गुप्त नहीं रह सकती । श्री यशोविजयजी कहते हैं, कि मुझे प्रभुसे अविचल प्रेमका रंग लगा है वह भी इसी प्रकारका है यानि कि छिपाया छिप नहीं सकता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy