________________
२४८
उपदेशामृत
ता. २७-१-३६,शामको ___ स्वयंको समझना है, कोई भी बात सुनकर बातका सार समझना चाहिये । बात बहुत भारी की! फिर चिंतामणि लगेगी। संसार असाररूप है। मनुष्यभव पाकर भी संसारमें भटक-भटककर नरकमें जाता है! धन मिलेगा, रुपया पैसा मिलेगा, पर चिंतामणिके समान आत्मा मिलना कठिन है। पैसा टका मिलेगा, पर साढ़े तीन हाथकी भूमि पर जला देंगे। रुपया, पैसा, स्त्री, बच्चे कोई भी साथमें नहीं जायेगा। कोई किसीका नहीं है। है क्या? मेरा घर है? पर वह भी नहीं रहेगा। जिसके लिये 'मेरा मेरा' किया है, उसे छोड़ना पड़ा है। एक सुई भी साथमें नहीं जायेगी, पैसा टका पड़ा रहेगा। जीवका जो एक कर्तव्य है उसे तो वह समझता नहीं है। करना तो एक ही है। मुख्य बात है : सबके पास भाव है। भाव ही सत्संग, सद्बोध-पानी पीनेसे प्यास बुझती है। भूखा हो तो खानेसे तृप्ति मानता है, पर आत्मा कभी खाता नहीं, मरता नहीं, जन्मता नहीं। आत्माको पहचाननेकी विशेष आवश्यकता है। अन्य तो सब किया है, पर यह नहीं किया है। पूर्ण भाग्य हो तो काम होता है। पानीमें डूबते हुए डुबकी लगाने जैसा है। इस संसारमें ही डूब रहा है। संसारमेंसे कोई निकलता नहीं। मात्र जिसने भावना की है, शरण ग्रहण किया है, वह जहाज मिले तो पार लग जाता है। अन्य कौन निकल सकता है? कोई निकल पायेगा?
(उठकर जानेवालेको संबोधित कर) मेहमान है। चेत जायें-दो घड़ी दिन है। 'वनसे भटकी कोयल ।' यहाँ बैठे हैं, ये सभी मेहमान हैं। ये कहीं जानेवाले हैं और वे भी कहीं जायेंगे। यह मेरी माँ मौसी कहलाती है, पर आत्मा किसीका पुत्र या पिता हुआ है? सब मोह है, ममत्व-माया है। सब मिथ्या है। उसे सत्य मानकर सिर पटका है! भूसा कूटनेसे दाने नहीं निकलेंगे। पानी बिलौनेसे मक्खन नहीं निकलेगा। खोटेको खरा माना है। जो करना है वह क्या करना है?
मुमुक्षु-"दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमें सर्व भाव अर्पण करके प्रवृत्ति किये जा। फिर यदि मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना।" पहले सत्संग, श्रवण और अवधारणा कर परिणाम और भाव करने चाहिये।
प्रभुश्री-यदि जीव सत्पुरुषार्थ करे तो सारा काम निबट जाये। किसी महापुरुषकी शिक्षा है-“दूसरा कुछ मत खोज, मात्र एक सत्पुरुषको खोजकर उसके चरणकमलमें सर्व भाव अर्पण करके प्रवृत्ति किये जा। फिर यदि मोक्ष न मिले तो मुझसे लेना।" विशेष रूपसे लिखकर रखने योग्य है। ऐसा करना चाहिये। कोई तेरा होनेवाला नहीं हैं। अतः जीवको यह करना है कि सत्संग करे, इसके समान कमाई किसीमें नहीं है। दो घडी समय जाये तो वह कुछ गिनतीमें नहीं है। हमने सत्संगमें बात सुनी यों कहे पर उसका पता नहीं है, उसके मूल्यका पता नहीं है। जीवको यथार्थ विचार करना है। अन्य काम करने हों और पचास रुपये कमाने हों तो दौड़कर जाता है, पर कल सुबह मर जाना है। पुनः पुनः ऐसा अवसर कहाँ मिलेगा? अतः लो, कर ही लेता हूँ, ऐसा विचार अभी नहीं आया है। यह जो सब मिला है वह रहनेवाला नहीं है, जानेवाला है। जो करना है उसका पता नहीं है और उसकी सँभाल भी नहीं है। सँभाल तो अन्य वस्तुओंकी है। यह तो मानो करके बैठा है! करनेका तो रह जाता है और न करनेका आगे धरता है। व्यापार-धंधा, बच्चोंकी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org