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________________ वह उपदेशसंग्रह-१ २४३ २. मुमुक्षु-योग्यता प्राप्त किये बिना, तैयार हुए बिना छुटकारा नहीं है। सत्संगके योगकी विशेष आराधना करनी चाहिये । “परम शांतिपदकी इच्छा करें, यही हमारा सर्व सम्मत धर्म है। और इसी इच्छा ही इच्छामें वह मिल जायेगा, अतः निश्चित रहें । मैं किसी गच्छमें नहीं, पर आत्मामें हूँ, इसे न भूलें।" प्रभुश्री-क्या नहीं है? कौनसी वस्तु नहीं है? आत्माके पास क्या नहीं है? अन्य कोई, बाप दे सके ऐसा हो तो कहो । मात्र एक आत्मा ही देगा। यह निश्चित कर लें। यह निश्चित नहीं हुआ, यही भूल है। यही करना है। यह निश्चित करनेकी ही जरूरत है। यह बात ऐसी ही है। 'भरत चेत!' ऐसा कोई आकर कहता था। उनके समान तो कोई तैयार भी नहीं है, सब समझनेकी बात है। बात आश्चर्यजनक है! 'सवणे नाणे विनाणे' कुछ कम कहा है ? अरे! तुम्हारा काम हो गया! नित्य प्रति बात करते हों तो कभीकभार निकल भी जाये, वह भी अनजानेमें जाय! यह बराबर है। सत् समझें। कहनेका तात्पर्य कि तैयार हो जायें। शुकदेवजीको कहा कि स्वच्छ होकर आओ। यों पता लगनेसे सब होगा। यह सब सत्संगके बिना नहीं होगा। ये वचन ज्ञानीके हैं, यह जो बात कही वही है। किसीका बल नहीं कि सत्संगके बिना प्राप्त कर ले। समागममें आये. जते पडे. भालें बरसे तो भी पीछे न हटे, तब काम बनता है। 'पवनसे भटकी कोयल', 'पंखीका मेला!' ये भाई बहन, माता-पिता न देखें। यह कुछ नहीं, मात्र एक आत्मा। यह बात दूसरी चलती है। यह तुम नहीं हो। ये जो बनिया, ब्राह्मण, पाटीदार कहलाते हैं वह बात नहीं है। कुछ अन्य करना है और वह दिखलाना है-यह बात अद्भुत है! कुछ और ही करना है। क्या? दृष्टि-भेद करना है। तैयार होकर आओ, योग्यता तो चाहिये ही। यह बात करते हुए तो पर्याय प्रवेश कर रही है और बात काम आ रही है, लाभ होगा-कानमें पड़ी या नहीं? यह बात बहुत जोरदार है, आश्चर्यजनक है! पर उसे लोकदृष्टिमें निकाल देते हैं। सत्संगकी तो ज्ञानी भी प्रशंसा करते हैं। तब फिर हमें भी उसी आधार पर बैठा रहना है। अब कुछ उपाय है? २. मुमुक्षु-उपाय तो जिसका जो होता है वही हो सकता है, अन्य नहीं। योग्यता लानेके लिये आरंभसे अंत तक सत्संग और सत्पुरुष ही है। प्रभुश्री-इस बातको मना तो कैसे किया जा सकता है? उपेक्षा नहीं कर सकते । परंतु यहाँ पर अन्य कुछ कहना है, वह क्या है? ३. मुमुक्षु-वीतरागमार्ग आत्मभावस्वरूप या परिणामस्वरूप है। वह असत्संगके कारण विपरीत प्रवर्तित हो रहा है, तब आत्मभावना किस प्रकार की जाय? भावोंमें परिवर्तन करना है और परिवर्तन करनेसे ही काम बनेगा। प्रभुश्री- “मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होई थिरो। ___ अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे ज्झाणं ।।" कर्मको भूत समझना चाहिये। भूतको निकालने पर ही मनुष्य अच्छा होता है। ४. मुमुक्षु-भूतको निकालनेके लिये भोपा चाहिये, वह बताइये। प्रभुश्री-आप अनजान नहीं है। बेधड़क बात की है : 'पावे नहि गुरुगम बिना' यही अंतिम छोर है, यही निबटारा है। यह बात बहुत गहन है, अभी समझने योग्य है। गुरु क्या है? यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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