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________________ २४२ उपदेशामृत सुरतरु-कल्पवृक्षके समान फल देनेवाला है। मन, वचन, देह ये तो विष हैं। जो नर-नारी इस व्रतकी भावना और पालन करेंगे, वे अनुपम फल प्राप्त करेंगे। ___ “पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिक ज्ञान; पात्र थवा सेवो सदा, ब्रह्मचर्य मतिमान. ७' पात्रके बिना वस्तु नहीं रह सकती, क्योंकि वस्तुके लिये पात्र चाहिये। जैसे पानी आदिके लिये पात्र चाहिये, वैसे ही पात्रताके लिये ब्रह्मचर्य है। यह बड़ा स्तम्भ है। यदि मन विषय-विकारमें जाये तो कटारी लेकर मर जाना, विष भक्षण कर लेना । जीवको आत्माका भान नहीं है, पता नहीं है। एक मात्र सार वस्तु बड़ीसे बड़ी ब्रह्मचर्य है-अपनी या परायी स्त्रीका सेवन नहीं करना । संपूर्ण लोक स्त्रीसे बँधा है, जिससे जन्ममरण प्राप्त होंगे। अतः इसे छोड़ दे । छोड़े बिना छुटकारा नहीं है। यह चमत्कारी बात है! अतः जो यह व्रत ग्रहण करेंगे उनका काम बन जायेगा। वीतराग मार्ग अपूर्व है! जितना करे उतना कम है! 'समयं गोयम मा पमाए'-फिर अवसर नहीं आयेगा। अपनेसे जितना हो सके उतना त्याग करना चाहिये। ता. २६-१-३६, सबेरे वृत्ति बुरा कर देती है, जीवका आत्महित नहीं होने देती। इस समय तो विशेष करना चाहिये। आनंदघनजी भगवानने कहा है कि १"धार तरवारनी सोहली, दोहली चौदमा जिन तणी चरणसेवा; धार पर नाचता देख बाजीगरा, सेवना धार पर रहे न देवा." पुकार कर कहा है! कुटुंब, विषय, कषाय महा अनर्थ है। ये सब तो अनर्थ करनेवाले हैं। यदि बोध ग्रहण किया तो उसका काम हो गया और यदि नहीं किया तो वह रह गया। "सह साधन बंधन थयां रहो न कोई उपाय: सत्साधन समज्यो नहीं, त्यां बंधन शुं जाय?' सब कुछ रह जाता है। आत्माको भावना, चिंतन, आलोचना करनी है। पर जीव बाहरका देखकर मग्न हो गया, फिसल गया-यही भुलावा है। 'मुख आगल है, कह बात कहे?' इस बातकी कमी रही है, अर्थात् इतनी पात्रता नहीं है, इसलिये ये इसमें नहीं डालते। पात्रता हो तो अभी डाल दें। यही कमी है। मुझे तो यही दिखाई देता है। हलवाईकी बच्चीको खाजाका चूरा खानेको मिलता है, इसलिये वह (दुष्कालके समय) गरीबोंको देखकर कहे कि “ये सब भूखे क्यों मर रहे हैं? चूरा क्यों नहीं खा लेते?" वैसे ही इस जीवकी योग्यताकी कमी है। सत्संगका दुष्काल है। अब क्या किया जाय? कहिये, कुछ बात कीजिये। १. मुमुक्षु-भूतकालके साधन तो व्यर्थ गये, पर अब वर्तमान कालके व्यर्थ न चले जाये ऐसा करना है। १. भावार्थ-तलवारकी धार पर चलना सरल है किंतु चौदहवें भगवानकी चरणसेवा मुश्किल है, क्योंकि नट लोग तलवारकी धार पर चलते दिखाई देते हैं परन्तु भगवानकी सेवारूपी धार पर देवता भी नहीं चल सकते। Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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