________________
उपदेशसंग्रह-१
२४१ बोलना करते हैं वे दुःखदायी और विष हैं। पुरुष हो तो स्त्रीकी ओर दृष्टि नहीं रखनी चाहिये । इस जीवको जो छोड़ना है वह भिन्न है। इस समय दिखायी दे कि यह भोग रहा है, पर वास्तवमें नहीं भोगता; और नहीं भोगता तो भी भोग रहा है। अतः विषयका त्याग करना चाहिये । वीतरागनेपरमकृपालुदेवने अनंत दया लाकर बताया है कि इतना तो समझे
"नीरखीने नवयौवना, लेश न विषयनिदान;
गणे काष्ठनी पूतळी, ते भगवान समान. १" यह जीव कुछको कुछ समझ बैठा है। ऐसा न करके बराबर विचार करना चाहिये। इस शरीरमें पीप, चर्बी, खून, हड्डियाँ, विष्टा आदि हैं। इसमें आत्मा मान लिया यही अज्ञान है। 'यह पुरुष है, यह स्त्री है' यह अज्ञान है। यह सब छोड़ना होगा। तेरे बसमें नहीं कि तू जाने, यह तो ज्ञानी ही जानते हैं। मात्र त्याग, त्याग और त्याग ही चाहिये । देह जाये तो भले ही जाये। यह (अज्ञान) छोड़नेसे अजर, अमर हो जाओगे।।
"आ सघळा संसारनी, रमणी नायकरूप;
- ए त्यागी, त्याग्युं बधुं, केवळ शोकस्वरूप. २" इस संकटको पहले मिटाना है!
“एक विषयने जीततां, जीत्यो सौ संसार;
नृपति जीततां जीतिये, दळ, पुर ने अधिकार. ३" इस विषयको ही जीतना है, अन्य काम नहीं है। अभी कहता है कि मैंने खाया, मैंने पिया, यह आत्माका सुख नहीं है। यह सब पुद्गल है। इसे अपना माना यही जन्ममरण है।
___विषयरूप अंकुरथी, टळे ज्ञान ने ध्यान;
लेश मदिरापानथी, छाके ज्यम अज्ञान. ४" मदिरापान करे तो नशा और विष चढ़ता है, पागल जैसा बोलता है, जिससे ज्ञान और ध्यान जैसी वस्तुका पता नहीं लगता। किस काममें संलग्न हो रहा हूँ? किसी गुरुगमसे, किसी भेदी मनुष्यसे ज्ञान और ध्यानको समझ ले और सावधान हो जा।।
"जे नववाड विशुद्धथी, धरे शियळ सुखदाई;
भव तेनो लव पछी रहे, तत्त्व वचन ओ भाई. ५" खेतमें बाड लगानेसे पशु, जानवर, मनुष्यसे रक्षा होती है, वैसी ही ये नौ बाडें बनायी गयी हैं। बड़ा भारी काम है! यह संसारकी माया है वह तू नहीं है। तेरा आत्मा है। यह सब छोड़। ध्यान देने योग्य है। यह (ब्रह्मचर्य) बदेसे बड़ा व्रत है। दृष्टि, वार्तालाप, बोलने-हँसनेसे पीछे हट; यह तू नहीं है। तू ऐसा करने जाता है तो मरता है, तुझे पता नहीं है। तू समझता है कि इसमें क्या है? बोलता हूँ इसलिये कुछ आपत्ति नहीं, पर ज्ञानीने आत्माको जाना है, ऐसा भेद अन्य कोई नहीं जान सका। मात्र भेद जाननेकी आवश्यकता है। जब तक आत्माको नहीं जाना तब तक अन्यको ही आत्मा मान बैठा है, और उससे नरक, तिर्यंच आदिमें भटक रहा है। अतः त्याग ही करना चाहिये। चौथा व्रत सबसे बड़ा है।
"सुंदर शियळ सुरतरु, मन वाणी ने देह; जे नर नारी सेवशे, अनुपम फळ ते तेह. ६"
____Jain Educati.
....
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org