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________________ २४० उपदेशामृ आवश्यकता है: निमित्त और उपादान । दोनों मिले तो काम बने। एक पहियेसे गाड़ी नहीं चल सकती। दो पहिये हो तो गाड़ी चलती है । इस पंचमकालमें सत्पुरुष, उसकी आज्ञा आदि प्राप्त हुए फिर भी यह जीव करता नहीं । यह तो इसीकी भूल है । जीव तैयार ही नहीं हुआ है। तैयार हो ए । कमी है। खड़े हो जाइए, मान्य कीजिये । क्या मार खानी है ? अब अहंकार ही अहंकारमें रहता है । यदि एक "ज्ञान, गरीबी, गुरुवचन, नरम वचन इनकुं कभी न छांडिये, श्रद्धा, शील, सबसे नम्र बन जाना चाहिये । अहंकारवालेको मोक्ष नहीं है। मार खायें, मारे- कूटे तो भी क्षमा करें, अन्य बात नहीं । इसके सिवाय अन्यसे तो छुटकारा नहीं है । नहीं तो मर ! गोदे खा । (आत्मा) 'है' पर यों ही दिखाई देगा क्या ? है; जैसे कोई प्राकृतिक उग निकला हो ! जाता भी नहीं, बनता भी नहीं । मीठी कुईका पानी, वह कभी खारा होगा क्या ? और खारी कुईका कभी मीठा होगा क्या? बस, समझ जायें । “जिसने सारे जगतका शिष्य होनेरूप दृष्टिका वेदन नहीं किया है वह सद्गुरु होनेके योग्य नहीं है ।" वह चमत्कारी वाक्य है ! अभी तक विचार नहीं किया है । मुझे सारे जगतका शिष्य बनने दें । “आत्मा विनयी होकर, सरल और लघुत्वभाव प्राप्त कर, सदैव सत्पुरुषके चरणकमलमें रहा, तो जिन महात्माओंको नमस्कार किया है उन महात्माओंकी जिस जातिकी रिद्धि है, उस जातिकी रिद्धि संप्राप्त की जा सकती है ।" यह चिंतामणि कहलाता है । यह ले और यह दे ऐसा नहीं है। अब तो चेतिये, जागृत होइये, जागृत होइये ! यह बुरा, यह दुर्बल ऐसा नहीं देखना है । जैसा है वैसा है। रात है सो रात है, दिन है सो दिन है। रात सो दिन नहीं, दिन सो त नहीं । नम्र होना पड़ता है, कठोर नहीं बनना चाहिये । Jain Education International निर्दोष; संतोष. " ता. २५-१-३६, शामको 1 मातापिता जैसी शिक्षा है । आत्माकी जन्ममरणसे छूटनेकी बात है । संसारमें मोह है। इन स्त्री, पुत्र, मकान, पैसा, पद आदिमें 'मेरा-मेरा' हो रहा है, यही बंधन है, परभवमें भटकानेवाला है । क्रोध, मान, माया और लोभका जीवने यदि बहुत अभ्यास रखा तो वह अभ्यास नरकमें ले जानेवाला है । ऐसा मनुष्यभव प्राप्त किया है - पशु, कौवे, कुत्तेको तो कहा नहीं जा सकता, अतः सावधान होना चाहिये । अरे ! स्त्री, पुत्र और पैसेमें आसक्त रहकर सिर फोड़ ! -चार गतिमें भटकेगा । जीवको तरनेके लिये जितना हो सके उतना यथाशक्ति त्याग करना चाहिये । त्यागके बिना मोक्ष नहीं होगा । छोड़ना पड़ेगा । देह छूटेगी तब कुछ साथ नहीं आयेगा । अतः त्याग बड़ी चीज है | परदेशमें धर्म होगा, बातें होती होगी, पर यह स्थान भिन्न है । मार्ग भिन्न है । मर्म समझना चाहिये । उदय कर्म हो- घर, स्त्री, बच्चे, पैसा हो; पर उसमेंसे जितना हो सके उतना त्याग करना चाहिये । सब न छोड़ा जा सके तो थोड़ा भी त्याग करना चाहिये । यह नींव है । यह मर्म किसीको समझमें नहीं आया है । मर्मको छातीमें, हृदयमें रखें। साढ़े तीन हाथकी जगहमें जला डालेंगे । धर्म साथमें आयेगा और यही सहायक है, अन्यथा भवभवमें भटकेगा। सबसे उत्तम मनुष्यभव पाकर सबको अवश्य मूल बातकी ओर कदम बढ़ाना चाहिये । परस्त्रीका त्याग करना चाहिये । इसमें भी चौथे महाव्रतको महान कहा है। उसके लिये तैयार हो जायें। इस जगतमें अन्य विषयभोग, हँसना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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