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उपदेशामृत
समझने योग्य है । यह सब बात जो अभी की है वह स्वर्णमुद्राके समान है । 'सत्संग करूँ, सत्संग करूँ' ऐसा जीवको हुआ ही नहीं है । क्यों ? इसलिये कि ऐसा हुआ ही नहीं है । यह प्रत्यक्ष विघ्न है, ऐसा जीवको हुआ ही नहीं है । वह क्या है ? इस जीवको एक ही चाहिये, क्या ? आप जानते हैं । जीयें तब तक करते रहें, लक्ष्यमें रखें, भूले नहीं । ज्ञानीका कहा हुआ है - 'सत्पुरुषार्थ' । इसके बिना कुछ हो सकता हो तो कहो । यही मार्ग है। यह सबका सार है, बहुत चमत्कारी है, वास्तविक और समझने योग्य है! योग्यताके बिना नहीं आ सकता । सत्पुरुषार्थसे ही आता है । यह बात गोलगोल की है, किसीको पता नहीं लग सकता । समझना पड़ेगा, करना पड़ेगा । किये बिना छुटकारा नहीं है । रोयें, मार खायें, कट जायें, पर यही करना है । इसीकी भावना, इच्छा करें । यही करना है । करना पड़ेगा ही । इसीके पीछे पड़ें, अन्यथा यह सब भूल है । बात महान है ! भोले-भालोंकी समझमें नहीं आ सकती, बात गहन है ।
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ता. २६-१-३६, शामको
'उपदेश छाया' में से वाचन
"छह खंडके भोक्ता राज छोड़कर चले गये और मैं ऐसे अल्प व्यवहारमें बड़प्पन और अहंकार कर बैठा हूँ, यों जीव क्यों विचार नहीं करता ?”
प्रभुश्री - चक्रवर्तीका पुण्य बहुत प्रबल होता है, पर उसे भी तृण समान मानकर चल निकले । चक्रवर्तीके वैभवके आगे किसीका वैभव नहीं । चौदह रत्न और नौ निधानका स्वामित्व जिनके पास ! पर उसे कुछ नहीं गिना । भरतको भी आदर्शभुवनमें केवलज्ञान हुआ । वस्तुको देखें तो क्या है ? केवल आत्मा । टेढ़ा क्या है ? विभाव । स्वभावमें हो तो सब सीधा । अतः पुकारकर कहते हैं कि 'आप स्वभावमां रे अबधु सदा मगनमें रहेना ।' जीव अन्य देखने जाता है । " कदम रखनेमें पाप है, देखनेमें जहर है, और सिर पर मौत सवार है; यह विचार करके आजके दिनमें प्रवेश कर |” मनुष्यदेह प्राप्त कर यह ग्रहण करना है । जब तक यह देह है, तब तक सब होगा । आप मेहमान हैं। किसके लिये करना है ? अतः चेत जाना चाहिये । आज नहीं तो कल, तेरे कुटुंब परिवार, सभी गये हैं वैसे ही तुझे भी जाना है। तो अब क्या करना है ? कुछ नहीं । इस जीवको वैराग्य नहीं आया है । वैराग्य आये तो सब ठीक हो जाये । कमी वैराग्यकी है। जिसे त्याग वैराग्य है उसका सब ठीक है, इतना समझ लें । त्याग और वैराग्य दोनों चाहिये । इन्हें निमित्त बनायें, बुरा निमित्त निकाल दे । इतना ही कर्तव्य है, इसीमें लाभ है । यह करते करते कर्म मार्ग देंगे, लाभ होगा । “ आयुके इतने वर्ष बीत गये तो भी लोभ कुछ कम न हुआ, और न ही कुछ ज्ञान प्राप्त हुआ । चाहे जितनी तृष्णा हो परंतु आयु पूरी हो जाने पर जरा भी काम नहीं आती, और 'तृष्णा की हो उससे कर्म ही बँधते हैं। अमुक परिग्रहकी मर्यादा की हो, जैसे कि दस हजार रुपयेकी, तो समता आती है । इतना मिलनेके बाद धर्मध्यान करेंगे ऐसा विचार भी रखा हो तो नियममें आया जा सकता है ।"
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१. मुमुक्षु - हाथमें कौड़ी न हो और लाख रुपयेकी मर्यादा करे तो ?
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प्रभुश्री - यह परिणामसे होता है । परिणाम कल्पनावाला हो तभी ऐसा होता है । अपेक्षा लेकर हे कि मैंने भी इस प्रकार किया है या नहीं ? पर यह गलत है। समझ ऐसी है कि दस हजारकी
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