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________________ २३८ उपदेशामृत ४. मुमुक्षु-मुझे लगता है कि अभी तक शरीरके जो भोग थे उनके स्थान पर जो आंतरिक गुण प्रकट हुए, उनके प्रकट होनेसे आत्मिक भोग भोगते हैं जो अनंत लाभ, अनंतवीर्य आदि स्फुरित होते हैं उन्हें भोगते हैं, अन्य पौद्गलिक भोग नहीं। ५. मुमुक्षु–यहाँ पुण्य-प्रकृतिके भोगका कथन नहीं है। वीर्य तो आत्माका गुण है। पहले भाव परवश थे वे कर्म आवरणके हट जानेसे स्ववश हो गये, क्योंकि स्वयंमें अनंत वीर्य प्रकट हुआ। यही कहना है। स्तवनमें आता है कि “दान विघन वारी सौ जनने, अभयदान पद दाता।" जो अपने परिणामका दान अन्यमें होता था वह अब स्वयंमें होता है और अन्यके संसार-परिणाम बदलकर अपनेमें (आत्मामें) करवाते हैं अर्थात् अभयदान देते हैं। केवलज्ञान तो सबका समान होता है, किन्तु यहाँ अपने स्वरूपके वीर्यांतरायका क्षय बताना है। प्रभुश्री-हाथीके पाँवमें सभी समा जाते हैं। चेतन और जड़ दो पदार्थ हैं, इनमें सब समा जाता है। और क्या कहे? 'सर्व जीव छे सिद्ध सम, जे समजे ते थाय।' समझे बिना सब अधूरा है। व्यवहारसे कर्मकी बात है। ता.२४-१-३६ प्रभुश्री-इसे सुननेसे, इस पर श्रद्धा करनेसे और यही करनेसे छुटकारा है। 'एक मरजिया सौको भारी' वैसे ही यदि यह जीव तैयार हो जाय तो सब कर सकता है। १. मुमुक्षु-साहेब, कोई एक वर्षसे तो कोई दो, पाँच, पंद्रह वर्षसे समागम कर रहे हैं, फिर भी अभी योग्यताकी कमी क्यों रह गयी? प्रभुश्री-सबको एक तराजू पर कैसे तौला जाय? भिन्न भिन्न तराजू होना चाहिये । अर्थात् तराजू भले ही एक हो पर प्रत्येकको भिन्न भिन्न प्रकारसे तौला जाता है। ‘एगं जाणइ से सव्वं जाणइ।' कुछ क्रिया करे उसका फल मिलता है। क्रिया कुछ बाँझ नहीं होती। बहुत साधन किये। 'तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो ।' मुमुक्षु-बात तो सिद्धशिलाकी करना, किन्तु करनेके लिये खड़ा न होना तो बात कैसे बनेगी? प्रभुश्री-यह तो पाँव उठाये, तभी वहाँ जा सकते हैं। दीक्षा ले, सब करे तो उसका भी फल मिलता है। ‘पलमें प्रगटे मुख आगलसे।' यह सब सुनकर खड़ा हो जा न? पेटमें छुरी भोंककर मर जाना चाहिये। संसारका सेवन भी करना और मोक्ष भी जाना, यह नहीं हो सकता। सब छोड़ना ही पड़ेगा। छोड़े बिना मुक्ति नहीं है। पत्रमें पढ़ते हैं कि एक सत्पुरुषको ढूँढो । फिर, अब क्या शेष रहा? इस पर श्रद्धा करनेसे, इसे सुननेसे काम बन जायेगा। निमित्त मिले तो सब कुछ हो सकता है। बाहर बैठे हों तो यहाँकी वाणी सुनाई देगी क्या? यहाँका निमित्त है तो यहींके पर्याय पड़ेंगे। यह तो आस्रवमें संवर और संवरमें आस्रव है। क्या यह मिथ्या है? ये सब पागल जैसी बातें करते हैं-सिर पर स्वामी है, स्वामी किया है इसलिये बोलते हैं तो भी आपत्ति नहीं। वीतराग मार्ग है। सब मत, गच्छ हैं, पर यह सबसे श्रेष्ठ है। अन्यत्र ऐसा नहीं है। ये साधु हैं। इन्हें दो हजार रुपये देंगे तो आयेंगे? स्वेच्छासे आये, पर ये भी आत्मा हैं न? हमने छोटी उम्रमें दीक्षा ली अतः सर्वत्र वाह! वाह! हो गयी। अब तो वह भी काला हो गया। सफेदमें दाग दिखाई दे, पर कालेमें दिखाई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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