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________________ उपदेशसंग्रह-१ २३७ ता. १६-१-३६,शामको १. मुमुक्षु-“मनरूपी योगमें तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है वह सिद्धि पाता है।" इसका क्या अर्थ? २. मुमुक्षु-भावचारित्रकी आराधनासे 'छूट जाऊँ, छूट जाऊँ' ऐसी भावना होती है। प्रभुश्री-मूल बात भाव ही है। "भावे जिनवर पूजिये, भावे दीजे दान; भावे भावना भावीओ, भावे केवळज्ञान." मुख्य दो बात हैं-भाव और परिणाम । यह सामग्री आत्माके पास है। जड़के जड़ परिणाम और चेतनके चेतन परिणाम यह समझनेका है। एक विश्वास और वैसी प्रतीति इस जीवको नहीं है। मर्ममें बात कही है कि 'सद्धा परम दुल्लहा।' यह बराबर है और मान्य है। यह बड़ी बात है। कृपालुदेवने कहा है कि तुम्हारी देरीसे देर है। मुर्दा तो नहीं है? आत्मा है। भाव आना चाहिये। १'जेवा भाव तेवा प्रभु फले, भभ्भा भजनथकी भय टले ।' २. मुमुक्षु-स्तवनमें आता है, २'रुचि अनुयायी वीर्य, चरणधारा सधे ।' जैसी रुचि होती है वैसे भाव प्रकट होते हैं। प्रभुश्री-भगवानने कहा है और ज्ञानी जानते हैं। जैसे भाव और रुचि होती है उसे ज्ञानी जानते हैं। कोई तो थोड़ेसे समयमें करोडों कर्म क्षय कर देता है, वह भी भावसे ही होता है। ३. मुमुक्षु-चारित्र आत्माका धर्म है। वह समरूप है। मोह अर्थात् दर्शनमोह और क्षुभित करनेवाला चारित्रमोह, इन दोनोंसे रहित समभाव है। भावमन तो आत्मा है। वह मन श्रद्धाकी ओर झुकता है, फिर चारित्र प्रकट होता है। कषाय चारित्रको आवरित करनेवाला है। उसे तो वह हेय जानता है और छोड़ता है वैसे वैसे चारित्र प्रकट होता है । बाह्य और आभ्यंतर क्रियाओंका रुक जाना चारित्र है। तभी यथार्थ भावचारित्र होता है। मनके कारण सब है। जब तक मन बाह्यमें होता है, तब तक चारित्र नहीं आता। मनकी स्थिरता ही चारित्र है, वहाँ मन वशमें रहता है। २. मुमुक्षु-अंतराय कर्म क्षय हो तब लाभ और केवलज्ञान प्रकट होता है। ३. मुमुक्षु-अंतरायकर्मके क्षय होने पर अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतवीर्य, अनंतभोग, अनंत उपभोग प्रकट होते हैं। यहाँ एक स्थान पर शंकाकारने टीका की है कि ज्ञानियोंने तो सब छोड़ा है और ये तो अनंत भोगते हैं ऐसा हुआ। इसका क्या अर्थ समझें? भोग दो प्रकारके हैं-बाह्य और आभ्यंतर । भगवान तो उन दोनोंसे रहित हैं। जिस प्रकार ‘घीका घड़ा' में घड़ा घीका कहलाया, पर वास्तवमें तो घी और घड़ा भिन्न-भिन्न हैं। घड़ा तो मिट्टीका है। इसी प्रकार समवसरणमें भगवानकी जो विभूतियाँ होती हैं वे तो पुण्यकी विभूति हैं। उसके भोगमें उनको कुछ लेना-देना नहीं है। वह तो सहज स्वभावसे पुण्यानुसार होता रहता है और पूर्वबद्ध आकर चला जाता है। वे तो उसमें एकदम उदासीन हैं. उन्हें कछ भी हर्षशोक नहीं है। १. जैसे भाव होते हैं वैसे ही प्रभु परिणमित होते हैं अर्थात् फल मिलता है। भजनसे संसारभय दूर होता है। २. रुचिके अनुसार वीर्यका प्रवर्तन होता है अर्थात् श्रद्धाके अनुसार जीवकी प्रवृत्ति होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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