SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 322
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशसंग्रह-१ २२७ जाना है अतः उनके सिवाय अन्य कोई कहनेमें समर्थ नहीं है। इस भवमें उसका इच्छुक हो और शोधक बने तो धन्य भाग्य! प्रत्यक्ष पुरुषका कथन और जिसने उन्हें जाना है, जिसको वे मिले हैं उसकी बात मुझे मान्य है, वही मान्यता है। मुझे तो कोई मिले नहीं और कुछ पता भी नहीं, अतः उनकी मान्यताके अनुसार मुझे मान्य है, वही कर्तव्य है और उससे काम होगा वही हितकारी होगा। भले ही जानता हो, या न जानता हो, पर उसकी मान्यता कहाँ मिलेगी? और उसका अंतःकरण भी कहाँ प्राप्त होगा? यही एक धारणा सच्चे पुरुषकी रहे तो काम बन जाय। इस भवमें यही प्राप्त करना है । पहचान कर ले, पहचान हो गई तो जीत गये। यह ऐसी-वैसी बात नहीं है, महा दुर्लभ है। करना चाहिये। मुमुक्षु-पिताने धन गाड़कर रखा हो और लड़केको बताया हो, उसे इसका पता भी हो और आज्ञा भी दे रखी हो तो वही बता सकता है। अतः यहाँ तो सिर देकर काम करने जैसा है। जरा भी चिंता नहीं और पूर्ण शांति है। अतः उससे मिले तो छुटकारा हो सकता है। अपने आप पता नहीं लगेगा। मिलना चाहिये। प्रभुश्री-यह पढ़ें “हे गौतम! उस काल और उस समयमें छद्मस्थ अवस्थामें, मैं एकादश वर्षकी पर्यायमें, 'षष्ठ भक्तसे षष्ठ भक्त ग्रहण करके सावधानतासे, निरंतर तपश्चर्या और संयमसे आत्मताकी भावना करते हुए, 'पूर्वानुपूर्वीसे चलते हुए, एक गाँवसे दूसरे गाँवमें जाते हुए, जहाँ सुषुमारपुर नगर, जहाँ अशोक वनखंड उद्यान, जहाँ अशोकवर पादप, जहाँ पृथ्वीशिलापट्ट था, वहाँ आया; आकर अशोकवर पादपके नीचे, पृथ्वीशिलापट्ट पर अष्टमभक्त ग्रहण करके, दोनों पैरोंको संकुचित करके, करोंको लम्बे करके, एक पुद्गलमें दृष्टिको स्थिर करके, अनिमेष नयनसे, शरीरको जरा नीचे आगे झुकाकर, योगकी समाधिसे, सर्व इन्द्रियोंको गुप्त करके, एक रात्रिकी महा प्रतिमा धारण करके, विचरता था (चमर)" प्रभुश्री-लिखा हुआ पढ़ लिया, पर भेदीके पाससे मर्म खुल जाय ऐसा होना चाहिये। इसमें से स्वयं कुछ पकड़ बैठे अपनी कल्पनासे, तो वह नहीं, पर वे कहते हैं वही सत्य है, ऐसा निश्चय करे तो काम बनता है। १. मुमुक्षु-इसमें कुछ समझमें नहीं आता। समझने जाते हैं तो सब कल्पना ही होती है। प्रभुश्री-हम भी ईडर गये थे और वहाँ सब कल्पना की थी, वह शिला और वह पहाड़ी भी देखी। उस पर सुनहरी रेत थी, नदी थी, दिगंबर मुनियोंकी छतरियाँ थीं। वह सब देखकर आश्चर्य हुआ था। १. मुमुक्षु-कृपालुदेवने आपको बताया था कि वे महावीर स्वामीके साथ वहाँ विचरे थे। वह सिद्धशिला, वह पुढवी शिला आदि भी आपको बतायी थी। आप तो इस संबंधमें जानते हैं, अतः आप ही कहिये। प्रभुश्री-जितना कहा जा सकता है उतना कहा । जो स्थान देखा था उसके बारेमें बता दिया। १. षष्ठभक्त=(छट्ठ) तीन दिनका उपवास (तेला)=एक साथ छह समय भोजन न करनेका व्रत। २. पूर्वानुपूर्वीसे-पूर्व क्रमानुसार, नियमानुसार। ३. अष्टमभक्त (भुक्ति)=अट्ठम, आठ समयका भोजन त्याग । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy