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उपदेशामृत
शिलाको ही पुढवी शिला कहा गया है । वहाँ विचरण भी किया था । पर यहाँ तो आत्माको जानना है । अन्य किसीसे हल निकलनेवाला नहीं है ।
१. मुमुक्षु - इसीलिये तो कल्पना होती है और अशातना भी हो सकती है । प्रभुश्री - एक वचन ऐसा आया है
“वह साधन बार अनंत कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो; अब क्यौं न बिचारत है मनसें; कछु और रहा उन साधनसें; बिन सद्गुरु कोय न भेद लहे; मुख आगल है कह बात कहे ?" उनकी 'हाँ' में 'हाँ' और उनकी 'ना' में 'ना', ऐसा विश्वास होना चाहिये ।
१. मुमुक्षु - ऐसा ही है ।
प्रभुश्री - यदि ऐसा हुआ होता तो फिर क्या शेष रहा ? क्या ऐसा आत्मा देखोगे ? १. मुमुक्षु - जैसा है वैसा बतायेंगे ।
प्रभुश्री - ऐसा बताते हैं, यह है आत्मा ।
'पर्यायदृष्टि न दीजिये, एक ज कनक अभंग रे. '
यही है अतः अब सावधान हो जायें, चेत जायें। बहुत कल्पना और घबराहट है, पर अंत नहीं आया ।
१. मुमुक्षु - पर्यायदृष्टि ऐसी है कि सातवें गोबर - मिट्टीके कोठेमें अभिमन्यु मारा गया। पता न होनेसे वहाँ मारा गया, वैसे ही जीव फँस जाते हैं । अतः पर्यायदृष्टि कैसे छूटे ?
प्रभुश्री - वज्र जैसे छह कोठे जीते पर हार न मानी, किंतु गोबर - मिट्टीके कोठेमें हार खानी पड़ी। वहाँका अनजान! अब हमें अनजान नहीं रहना है। जानकार बनना है, बात मान्यताकी है ।
२. मुमुक्षु- महावीर भगवानने कृपालुदेवको बताया और कृपालुदेवने आपको बताया तो इस मर्मको आपके सिवाय कोई बता नहीं सकता। ईडरमें छतरियाँ, प्रतिमा देखीं, पर इन सबका भावार्थ और मर्म तो आपके पास रहा।
प्रभुश्री - ज्ञानीके पास । हमें तो जो बताया वही मानना और जानना है । मानना अपने हाथमें है । जिस - किसी दिन वह भावसे होगा । भावकी आवश्यकता है । किसका काम है ? आपकी देरी से देर है । पकड़ आनी चाहिये ।
१ मुमुक्षु - आप कहते हैं कि अनादिकालसे अज्ञान है और अनजान है। क्या किया जाय इसका पता नहीं है। पर मानना तो यही है - जो कह रहे हैं वही; किन्तु वह तो माना नहीं जाता । और कुछ आता भी नहीं । इसका क्या कारण है ?
प्रभुश्री - अनादिसे परभावमें है, उसे पलटकर स्वभावमें लाना है । ऐसे किये बिना छुटकारा नहीं है । वह किसका काम है ? 'मानो, मानो' कहनेसे होगा ? अतः तू स्वयं सच्चा बन जा । १. मुमुक्षु - योग्य ( स्वच्छ ) हो जाये तो कृपालुदेव तैयार है । 'जिन थई जिनने जे आराधे, ते सही जिनवर होवे रे' । पर योग्य कैसे होना यह प्रश्न है ।
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