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उपदेशामृत
ता. १४-१-३६, शामको 'उपदेशछाया' मेंसे वाचन
___"वेदांतमें इस कालमें चरमशरीरी कहा है। जिनेन्द्रके अभिप्रायके अनुसार भी इस कालमें एकावतारी जीव होता है। यह कुछ मामूली बात नहीं है क्योंकि इसके बाद कुछ मोक्ष होनेमें अधिक देर नहीं है । जरा कुछ बाकी रहा हो, रहा है वह फिर सहजमें चला जाता है। ऐसे पुरुषकी दशा, वृत्तियाँ कैसी होती है? अनादिकी बहुतसी वृत्तियाँ शांत हो गयी होती हैं; और इतनी अधिक शांत हो गयी होती हैं कि रागद्वेष सब नष्ट होने योग्य हो जाते हैं, उपशांत हो जाते हैं।"
१. मुमुक्षु-इस कालमें मोक्ष नहीं है, ऐसा कहकर सबको शिथिल कर दिया है। उसका यह भेद तोड़ दिया है। वेदांतमें चरमशरीरी और यहाँ एकावतारी कहा अर्थात् सहजमें मोक्ष हो सकता है।
प्रभुश्री-पाँच समवाय कारण कहे गये हैं-काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकृत और पुरुषार्थ । ये हों तो कितने ही भारी कर्म क्यों न हों, सब उड़ जाते हैं और मोक्ष हो जाता है। यह मनुष्यभव प्राप्त कर यही ढूँढना है। व्यवहारमें आमदनी करने आदि प्रत्येक प्रकारके मार्ग ढूँढते हैं, वह सब करनेका ज्ञानीपुरुषने नहीं कहा है। वह तो सब कर्म और पूर्वका संचय है। अभी जो मनुष्यभव है वह भी मेहमानके समान । अतः समझें । कौवे कुत्ते नहीं समझेंगे। पूर्वकृत और पुरुषार्थकी सामग्री चाहिये। वह हो तो समझमें आ सकता है। कहनेका तात्पर्य यह कि कल सबेरे ही सब मिट जायेगा। वह तो जैसा होना है वैसा होगा ही। आप सबको यहाँ कौन लाया है? वह तो वही । समझमें आयेगा तब आत्महित होगा। 'मैं' और 'मेरा' अभी मिटा नहीं हैं, वही किया करता है। व्यापार-धंधेकी तो दौड़ लगाते हैं, पर सब कुछ यहीं छोड़कर जाना है। फिर यह बाजी हाथ नहीं लगेगी। यह कितनी अनुकूल सामग्री आ मिली है? अतः ऐसी अनुकूलताके समय भूलना नहीं चाहिये। भरत, चेत! भरतराजाने एक व्यक्तिको यही कार्य सौंप रखा था कि वह नित्य सुबहमें अभिवादनके समय आकर कहे कि भरत चेत! ऐसे ज्ञाता थे, जानकार थे, फिर भी चेतनेका निमित्त रख छोड़ा था। शरीरमें असाता बहुत है और उसको अच्छा-बुरा होनेसे उसे ही अपना माननेकी आदत हो गई है। यह मेरा हाथ, यह मेरा पाँव, सब मेरा, मेरा। किन्तु अभी साताअसाता भोग रहा है आत्मा। यह बात मान्य नहीं हुई। आत्मा कैसा है? किसीने निश्चित किया है? जगतमें माता-पिता, कुटुंब परिवार, धन-दौलत मिले तो उससे क्या बढ़ा? इसको जाननेवाला कोई है, उसे जाना क्या? एकावतारीपना कहा इससे आशा जागृत हुई कि है। अतः विशेषरूपसे यह दौड़ करनेकी है। दौड़ता तो है पर अन्य दिशामें, जिससे दौड़ना व्यर्थ हो जाता है। जो नहीं करना है वह करता है और करनेका धरा रह जाता है। अन्यत्र दौड़ लगाता है, वह सब व्यर्थ है। प्रारब्धमें हो वह मिलता है, फिर भी उसी ओर दौड़ता है। जो करना है उसका तो मूलसे ही पता नहीं है। अन्य सब मानता है, वह तो मिथ्या है। जिसे ढूँढना है वह क्या है? “हुं कोण छु ? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरूं?" इस पर विचार करे तो काम बन जाय । अन्य सब तो यहीं पड़ा रहेगा, कुछ साथ नहीं चलेगा। छोड़ना पड़ेगा। कर्मकी गति विचित्र है। इस कालमें काम कर लेना हो तो हृदयमें इतना लिख रखें-'सत्संग और बोध' । वह करते रहना चाहिये । कुछ न सुनाई देता हो, पागलसी बातें हो पर वह सत्संग है। अनादिकालसे आत्माको आत्माके रूपमें जाना नहीं है। ज्ञानीने
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