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उपदेशसंग्रह - १
प्रभुश्री - व्यवहारको भी लेना पड़ेगा ।
३. मुमुक्षु-क्षमा दो प्रकारकी कही है - व्यवहारधर्म क्षमा और आत्माके परिणामरूप क्षमा । मोहनीयकर्मके क्षयसे जितने गुण प्रकट होते हैं, वे आत्माके स्वभावरूप ही हैं । यहाँ स्वभावकी क्षमाको कहना है, दूसरी व्यवहार क्षमा ।
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प्रभुश्री - मूल वस्तुको तोड़ फोड़कर देखना है । क्या यह ठीक है ? ऐसा क्यों नहीं होता ? इसे किस प्रकार समझें? क्या निकाल देना है ? (मुमुक्षुको) क्यों, कुछ समझमें आता है ?
४. मुमुक्षु - मुझे बराबर समझमें नहीं आता ।
प्रभुश्री - जैसा है वैसा समझना चाहिये । क्षमाका नाम बड़ा है । वस्तुगत वस्तु है । दूसरे 'क्षमा' कहते हैं वह क्षमा नहीं। शुभ, अशुभ और शुद्ध ये भेद डाले हैं न ? अतः इस बात पर बराबर विचार कर लक्ष्यमें लेनी होगी ।
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१. मुमुक्षु - मूल वस्तुके बलके बिना क्षमा नहीं होती । समभावके कारण क्षमा आदि सब गुण कहे गये ।
प्रभुश्री - समभाव आत्मामें है । शुभ और शुद्धमें भूमि - आकाशका अंतर है ! उसे माने बिना छुटकारा नहीं यह तो सच है न ?
४. मुमुक्षु - मुझे समझमें नहीं बैठता। और बैठे बिना कैसे माना जाय ? शास्त्रपद्धतिके अनुसार म नहीं रहा है ।
प्रभुश्री - वीतरागने जो कहा है वह सत् है । मूल वस्तु, बात क्या चल रही है ? धर्मसंन्यास आत्मा है । 'धर्म क्षमादिक पण मटे' कहा जिससे धर्म मिट गया क्या ? नहीं । क्षायोपशमिक क्षमादिक गुणधर्म मिटे, क्योंकि अब ध्यान प्रारंभ हुआ, उसमें अन्य ध्यान छोड़ दिये, पर शुक्लध्यान लिया। अन्य सब निकाल दिये । दशा वर्धमान हुई अर्थात् अन्य हो गया । अर्थात् ध्यान अंतिम ही होता है। धर्मसंन्याससे क्षायिक भावरूप क्षमाधर्म तो स्वयं आत्मा हुआ ।
२. मुमुक्षु - सिद्ध भगवानको जो ध्यान होता है उसमें तो अन्य कोई ध्यान रहा नहीं। चारों ध्यान मिट गये - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ।
प्रभुश्री
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"ज्यां ज्यां जे जे योग्य छे, तहाँ समजवुं तेह; त्यां त्यां ते ते आचरे, आत्मार्थी जन ओह. "
मुख्य बात क्या है, इसे देखना पड़ेगा । उसका नाम लिया तो स्वीकार करना पड़ेगा । ये साधु बन बैठे हैं और व्यवहार व्यवहार कर रहे हैं । एक गिरधरभाई थे, वे कहते, "क्या ऐसा नहीं ? वैसा नहीं ? ऐसे होता है!” वाह ! तेरा समकित ! सच है भाई, पर मनमें कहा, “वाह! मूर्ख ! यह क्या है ? जो करना है उसे ही छोड़ रहा है ।" यह बात तो अपूर्व है ! जीवको रुचि करनी चाहिये । समझमें अंतर हो तो भी मान्यता तो स्वामीकी है । अतः उस मान्यतासे मान । मान्यता तो काम बना देती है । 'सद्धा परम दुल्लहा' । कोई पूछे, आपके कोई स्वामी है ? तो कहे, हाँ है । तब चिंता नहीं रहती । सिर पर स्वामी तो रखना चाहिये ।
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