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________________ २२४ उपदेशामृत बुलाया, पर उसके आनेमें देर हो गई। अभिमन्यु इतना बलवान था, उसके लिये गोबर-मिट्टीके कोठेमेंसे निकलनेमें क्या कठिनाई थी? पर नहीं निकल सका। निकलनेका भेद नहीं जानता था जिससे उलझनमें पड़ गया कि इसे कैसे जीतें; और वह निकल नहीं सका। इसी प्रकार कुछ सच्ची समझ चाहिये, और भी कुछ चाहिये । बनियोंके लिये कहा जाता है कि 'पना फिरे और सोना झरे'; ढूँढा, पृष्ठ पलटे और खातोंकी जाँच की तो कुछ मिला, हाथ लगा; यदि बहियाँ रख छोड़े और उनकी जाँच न करे तो कुछ हाथ लगेगा? नहीं लगेगा। वैसे ही इस जीवको विचार करना है, अतः खड़ा हो जा। यह अवसर निकल गया तो फिर कुछ नहीं हो सकेगा। * ता. १४-१-३६, सबेरे १. मुमुक्षु-चौथी दृष्टिमें ऐसा कहा है कि 'धर्म क्षमादिक पण मटेजी, प्रगट्ये धर्मसंन्यास' और आठवीं दृष्टिमें ऐसा कहा है कि 'चंदनगंध समान क्षमा इहां, वासकने न गवेषेजी' तो यह कैसे है? और क्या समझें? २. मुमुक्षु-दशलक्षण यतिधर्म और क्षमा इन दोनोंके लक्षण समझमें आ जायें तो प्रश्न ही न रहे। प्रभुश्री-तीन गुप्ति और दश यति धर्म ये कहाँ होते हैं ? २. मुमुक्षु-क्रोध न हो तो क्षमा गुण प्रकट होता है। सम्यगदर्शन ज्ञान और चारित्र आत्मामें हैं। पर क्षमा आत्माका मूल गुण नहीं है, यही यहाँ बताना है। धर्मसंन्यास योग है। इच्छायोग, शास्त्रयोग और सामर्थ्ययोग यों तीन योग हैं। धर्म-संन्यास सामर्थ्ययोगमें समाहित है। संपूर्ण धर्मसंन्यास तो सयोगी केवली तक है। जितना आत्मिक गुण प्रकटा उतनी क्षमा है। पूरी क्षमा नहीं आयी। आत्माका गुण तो ज्ञान-दर्शन-चारित्र है। यहाँ क्षमा मूलभूत गुण नहीं है। ३. मुमुक्षु-आत्माका उपयोग तीन प्रकारसे है-शुभ, अशुभ और शुद्ध । शुद्धमें तो आत्मामें रमणता है। मुझे क्रोध नहीं करना है, क्षमा रखनी है, ऐसा करना है, वैसा करना है, यह तो शुभ हुआ। क्षमा धर्म तो मुनिका धर्म है। शुद्ध उपयोगमें तो आत्माकी स्थिरता है। मुनिको शुद्धभावका लक्ष्य होता है इसलिये शुभ (क्षमा) भी कार्यकारी है । संसारमें शुभ कहा जाता है वह नहीं । शुद्धके लक्ष्यपूर्वक शुभ कार्यकारी है। अतः उपचारसे सच्चा क्षमा धर्म वहाँ नहीं है ऐसा कहा है। आत्माके गुण दो प्रकारके हैं-अनुजीवी और प्रतिजीवी। अब सिद्धके आठ गुण । उसमेंसे चार-अनंत ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख-ये अनुजीवी गुण हुए। अन्य चार-सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाधता और अवगाहना-ये चार प्रतिजीवी । एक वस्तुसे दाग निकल गया अर्थात् उसमें दाग था, पर मूल वस्तुके स्वभावमें दाग नहीं था। यहाँ दो अपेक्षासे कथन है-एक स्वभावकी और दूसरी आवरणकी। २. मुमुक्षु-केवलीमें संज्वलन कषाय नहीं होनेसे क्षमा कही गयी, पर क्षमा आत्माका गुण नहीं है। परिणामकी बात तो आत्मा जानता है और भोगता है। पर बात गुण और व्यवहार धर्मकी हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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