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________________ उपदेशसंग्रह-१ २२३ कहाँ पहुँच जाते? मानमें । देवकरणजी जैसोंको मानका पोषण होता कि 'मेरा कंठ कितना सुरीला है? मेरे जैसा कौन बोल या गा सकता है? उससे कितनी सारी शोभा होती है?' लो, यह बिगड़ा और दूसरा ही कुछ बीचमें घुस गया। जो समझना चाहिये वह नहीं समझ सके। कई बार बोलते पर कुछ लक्ष्य नहीं। फिर जब कृपालुदेव मिले और कहा कि इसका मर्म क्या है, इस पर विचार करो। तब समझमें आया। उनके कहनेसे वह शक्कर जैसा मीठा लगा। कहनेवाला कौन है? समझानेवाला कौन है? और क्या है? इसका पता नहीं है। जैसे गहराईमेंसे ग्रहण किया हो, वैसा कहनेवाला नहीं मिलेगा । पाँच गाथाका अर्थ और उसमें किया हुआ सब समास, विस्तार ऐसा वैसा नहीं है, महान है हाँ! "मारग साचा मिल गया, छूट गये संदेह; होता सो तो जल गया. भिन्न किया निज देह.' मात्र बोल लिया, पर मर्म समझमें न आये तो क्या कामका? ऐसा बोलनेवाला और कहनेवाला कौन है? यह तो रंकके हाथमें रत्न आ गया। इसे लौकिकमें न गिने, अलौकिक दृष्टिसे ग्रहण करें। हम फेणाव गये थे। वहाँ छोटालालभाई थे, उनके भाई आदि थे। उनसे मिलना हुआ। अंबालालभाई (खंभातके मुमुक्षु) छोटालालभाईके पास कभी कभी जाते, कृपालुदेवकी बातें कहते और समझाते; माननेको कहते; पर समझमें न आता और मान्य न होता। फिर हमसे मिलना हुआ। हम पर विश्वास होनेसे हमसे पूछा, “अंबालालभाई कहते हैं कि इसे मानो और ज्ञानीपुरुषके वचन पर लक्ष्य दो। क्या यह सही है?" तब मैने कहा कि "भाई! हम भूले हैं।" हम उस समय स्थानकवासी वेषमें थे, और हम पर विश्वास था इसलिये पूछा, “ऐसा क्यों कहते हैं? हम भूले ऐसा क्यों कह रहे हैं ?" हमने कहा, "भाई! यह मार्ग भिन्न है! सच्चा है, आत्मज्ञानीका है और समझने योग्य है। अतः वे जैसा कहते हैं, वैसा करना चाहिये।" मुझ पर विश्वास होनेसे मान गये। मैंने उन्हें इस 'अमूल्य तत्त्वविचार'की पाँच गाथा कंठस्थ करनेको कहा, और उन्होंने कर ली तथा लक्ष्यपूर्वक बोलते रहते । शरीर छूटा तब तक यही भाव रहा। अच्छी गति हुई। दूसरे कर्म मिट गये और गति सुधर गई। जीवको ऐसी वस्तुकी कुछ भी गिनती नहीं और उस ओर ध्यान नहीं। इस बातका आशय क्या है? एक श्रद्धा । जीवको श्रेष्ठमें श्रेष्ठ करने योग्य इतना है-प्रतीति, विश्वास और श्रद्धा। किसी स्वरूप प्राप्त पुरुषने कुछ कहा हो तो उसे गले उतार दें, रोमरोममें प्रवाहित कर लें, यही मोक्षका मार्ग है। मेरी तो यही समझ है कि जो मैंने कह बतायी है। ऐसा है! अतः इसे लक्ष्यमें रखें। इस बार तो कृपालुदेवने स्थान-स्थान पर रत्न बिछा दिये हैं! अतः क्या कहूँ ? उसीमें आनंद मनाते हैं। कृपानाथने हमसे कहा था कि हमें कहीं पूछने जाना नहीं है। अतः कुछ विचार या चिंता करने जैसा नहीं रहा। फिकरके तो फाँके मार लिये हैं। मुझे कह दिया कि "अब क्या है?" क्योंकि पहचान करा दी और स्मृति दिलाई, बता दिया। "धिंग धणी माथे किया रे, कुण गंजे नर खेट; विमल जिन दीठां लोयण आज." भीमसेनने अभिमन्युको जीतने भेजा, कहा कि तू कोठे जीतने जा, मैं अभी आया। अभिमन्यु सभी कोठे जीत गया। पर गोबर-मिट्टीका कोठा था वहाँ उलझनमें पड़ गया और भीमसेनको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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