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________________ २२२ उपदेशामृत प्रभुश्री-बुखार आये, सिरदर्द हो, पेटमें दर्द हो, पीड़ा हो, नींद न आये, यह सब शरीरके संबंधसे होता है। फिर यदि वह भाव मिट गया तो सब मिट गया। वह कोई कह सकेगा? कोई नहीं कहेगा। जाननेवाला कहता है। जाननेवाला हो और भान न हो तो नहीं बता सकता। उसे कौन कहेगा? एक ज्ञानी; उससे कुछ छिपा नहीं है। वह कहाँ है ? कहिये । ३. मुमुक्षु-जहाँ ज्ञान है वहाँ ज्ञानी है। प्रभुश्री-ज्ञानी वेदन करते हैं ज्ञानमें । ज्ञान कहाँ है? ज्ञानीमें। "मा चिट्ठह, मा जंपह, मा चिंतह किं वि जेण होई थिरो, __ अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे ज्झाणं." वहाँ है; अन्य कोई स्थानमें नहीं। इस जीव मात्रको क्या ढूँढना है? इस पर विचार करें। १. मुमुक्षु- “रे आत्म तारो, आत्म तारो, शीघ्र एने ओळखो; सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो." उसे ही पहचानना है। प्रभुश्री-यह बात तो सही है न? २. मुमुक्षु-बात तो सही है, पर पहले तो सत्पुरुषको ढूँढना पड़ेगा। उनके बिना काम बनेगा नहीं। १. मुमुक्षु-उपरोक्त गाथामें यह सब स्पष्ट किया है। “हुं कोण छु? क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारूं खरूं? कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परहरूं? एना विचार विवेकपूर्वक शांतभावे जो कर्या; तो सर्व आत्मिक ज्ञाननां सिद्धांततत्त्व अनुभव्यां. ते प्राप्त करवा वचन कोनुं सत्य केवळ मानवं? निर्दोष नरनुं कथन मानो 'तेह' जेणे अनुभव्यु." वे वचन मानें । क्या मानें? तो कहते हैं "रे! आत्म तारो, आत्म तारो, शीघ्र एने ओळखो." कैसे पहचानें? “सर्वात्ममां समदृष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो." ३. मुमुक्षु-पहले 'नमुत्थुणं' के पाठमें 'जीवदयाणं' ऐसा बोलते थे। पर 'जीवका दाता' अब मिला है तब समझमें आता है। शुरूआत तो दातासे हुई। प्रभुश्री-'बहु पुण्यकेरा' क्या यह पद आश्चर्यकारक नहीं है? उसकी समझ देखिये! उसका उल्लास देखिये! उसकी बात देखिये! कैसा मर्म! क्या समझने जैसा नहीं? वहाँ निर्जरा हुई। इस जीवको वह करने योग्य है। वस्तुके माहात्म्यको नहीं समझा। प्रत्येक वचन, एकेक वचन माहात्म्यवाला है। 'अमूल्य तत्त्वविचार'की पाँच गाथाका माहात्म्य मर्मवाला है। पहले हम सब बोलते और लोग वाह! वाह! करते, पर कुछ नहीं, तुंबीमें कंकड़ जैसा था। न लेना, न देना, उलटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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